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डॉ भीमराव अंबेडकर

 




STUDY NOVELTY 

डॉ. भीमराव अंबेडकर : सामाजिक–धार्मिक विमर्श, आर्थिक चिंतन और आधुनिक भारत का वैचारिक शिल्पकार


डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर आधुनिक भारत के उन महानतम बुद्धिजीवियों में से एक थे जिनकी चिंतन-परंपरा समाज, राजनीति, अर्थशास्त्र, धर्म और इतिहास के विविध क्षेत्रों को एक साथ छूती है। उनका जीवन संघर्ष, अध्ययन, सामाजिक प्रश्नों की गहरी समझ और मानवता के प्रति अटूट प्रतिबद्धता का संगम था। अंबेडकर की बौद्धिक यात्रा केवल दलित समाज के उद्धार का प्रयास नहीं थी; वह पूरे राष्ट्र के पुनर्निर्माण की वैचारिक परियोजना थी। उनकी कृतियाँ उनके चिंतन का व्यापक स्वरूप प्रस्तुत करती हैं और आधुनिक भारत के निर्माण में उनका निर्णायक योगदान स्पष्ट करती हैं। डॉ अंबेडकर की प्रमुख कृतियां हैं :

Waiting for a Visa

The Annihilation of Caste

Riddle of the Shudras

Riddles in Hinduism

The Problem of the Rupee

Pakistan or the Partition of India


सामाजिक पृष्ठभूमि और व्यक्तित्व का निर्माण

अंबेडकर का जन्म ऐसे समाज में हुआ जहाँ उन्हें अछूत होने के कारण भेदभाव और अपमान का सामना करना पड़ा। बचपन में स्कूल में अलग बैठाया जाना, सार्वजनिक स्थानों पर पानी न मिलने देना, और छूने तक पर रोक, ये अनुभव उनके मन में सामाजिक असमानता के प्रति गहरी समझ छोड़ गए। यह संघर्ष उनके व्यक्तित्व का ऐसा आधार बना जिसने उन्हें न्याय और समानता की खोज के लिए प्रेरित किया। उनकी बौद्धिक क्षमताएँ उन्हें कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स तक ले गईं, जहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिक विज्ञान और विधिशास्त्र का गहन अध्ययन किया। विभिन्न विषयों में यह व्यापक पकड़ आगे चलकर उनके विचारों को बहुआयामी और वैज्ञानिक दृष्टि देने में सहायक हुई। अंबेडकर का व्यक्तित्व इसी अद्भुत मिश्रण—संघर्ष, शिक्षा और तर्कशीलता—से निर्मित हुआ जिसने उन्हें अपने समय का सबसे आधुनिक विचारक बनाया।


अंबेडकर और स्वतंत्रता संग्राम : संघर्ष का वैकल्पिक विमर्श

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अंबेडकर का योगदान पारंपरिक राजनीतिक संघर्ष की बजाय सामाजिक न्याय के संघर्ष में निहित था। उनका मानना था कि राजनीतिक स्वतंत्रता तभी सार्थक होगी जब समाज के सबसे कमजोर लोग भी समान अधिकारों और सम्मान के साथ जी सकें। यही कारण था कि महाड़ सत्याग्रह और नासिक के कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन उनके सामाजिक आंदोलन के केंद्र में रहे। इन आंदोलनों ने पहली बार दलित समुदाय को अपने अधिकारों के लिए संगठित होकर खड़े होने की चेतना दी। गोलमेज सम्मेलनों में उनकी भागीदारी ने यह स्पष्ट किया कि वे भारतीय समाज में दलितों की राजनीतिक भागीदारी और सुरक्षा को कितना महत्वपूर्ण मानते थे। वे इस विचार के समर्थक थे कि स्वतंत्र भारत तभी मजबूत होगा जब उसके सभी नागरिक समान रूप से भागीदार महसूस करेंगे। अंबेडकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के विरोधी नहीं थे बल्कि उनका स्वतंत्रता संघर्ष राजनीतिक और सामाजिक दोनों मोर्चों का एक वैकल्पिक विमर्श प्रस्तुत करता है, जिसमें स्वतंत्रता केवल सत्ता-हस्तांतरण का नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का प्रश्न भी था।


अंबेडकर का आर्थिक चिंतन 

अंबेडकर की आर्थिक दृष्टि उनकी पुस्तक The Problem of the Rupee में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है, जो भारत की मुद्रा-व्यवस्था पर उनकी गहरी पकड़ का प्रमाण है। उन्होंने बताया कि भारत की मुद्रा प्रणाली लंबे समय तक चाँदी पर आधारित थी और वैश्विक अर्थव्यवस्था में चाँदी के मूल्य में गिरावट ने भारतीय रुपये को कमजोर और अस्थिर बना दिया। ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनाई गई Gold Exchange Standard की नीति को उन्होंने अवैज्ञानिक और भारतीय हितों के विपरीत बताया। उनके विश्लेषण के अनुसार यह नीति भारत को महँगाई, व्यापार असंतुलन और मुद्रा-संकट की ओर धकेल रही थी। अंबेडकर ने मुद्रा स्थिरता के लिए एक स्वर्ण-आधारित मानक, वैज्ञानिक नियमों पर आधारित मुद्रा-संचार और एक स्वतंत्र केंद्रीय बैंक की स्थापना का प्रस्ताव रखा। उनका यह विचार आगे चलकर 1934 के RBI Act के रूप में आकार लिया और रिज़र्व बैंक की स्थापना हुई, जो आज भी भारत की आर्थिक नीति का मूल स्तंभ है। इस प्रकार आर्थिक चिंतन में अंबेडकर की यह कृति आधुनिक भारत की मुद्रा-व्यवस्था के निर्माण में अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है।


ब्रिटिश भारत, हिंदू–मुस्लिम संबंध और भारत का विभाजन 

अंबेडकर की पुस्तक Pakistan or the Partition of India भारत-विभाजन के जटिल प्रश्न का वैज्ञानिक और ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत करती है। उन्होंने हिंदू–मुस्लिम संबंधों को केवल राजनीतिक संघर्ष के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तत्वों के संयुक्त परिणाम के रूप में देखा। उनके अनुसार दोनों समुदायों के बीच जीवन-शैली, संस्कृति, इतिहास-बोध और सामाजिक व्यवहार में गहरे अंतर थे, जिनकी उपेक्षा करके साझा राष्ट्रवाद संभव नहीं हो सकता था। दो-राष्ट्र सिद्धांत पर उन्होंने गहन आलोचनात्मक दृष्टि डाली और बताया कि यह किसी धार्मिक श्रेष्ठता से नहीं, बल्कि आपसी अविश्वास, राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और अंग्रेजों की सामरिक नीति से उत्पन्न हुआ। उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस मुस्लिमों को बराबर भागीदार के रूप में नहीं देख पाई और मुस्लिम लीग भय की राजनीति से बाहर नहीं आ सकी। इन परिस्थितियों ने विभाजन को लगभग अपरिहार्य बना दिया। अंबेडकर की यह पुस्तक भावनाओं के बजाय तथ्य और तर्क पर आधारित विश्लेषण प्रस्तुत करती है, जो विभाजन की ऐतिहासिक प्रक्रिया को समझने के लिए आज भी अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है।


धार्मिक और दार्शनिक आलोचना

अंबेडकर की पुस्तक Riddles in Hinduism हिंदू धर्मग्रंथों, मिथकों और सामाजिक मान्यताओं का तर्कपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत करती है। उन्होंने वेदों, पुराणों, स्मृतियों और धार्मिक कथाओं में पाए जाने वाले अनेक विरोधाभासों की ओर ध्यान आकर्षित किया और बताया कि जाति व्यवस्था का मूल आधार धार्मिक साहित्य में गहराई से निहित है। उनकी दृष्टि में जाति कोई प्राकृतिक या सामाजिक विभाजन नहीं, बल्कि एक उद्देश्यपूर्ण धार्मिक व्यवस्था है जिसने भारतीय समाज के विकास को कठोर रूप से सीमित किया। उन्होंने राम, कृष्ण और अन्य धार्मिक प्रसंगों को भी एक नैतिक और तार्किक दृष्टि से परखा और यह दिखाया कि धार्मिक कथाओं में समानता और न्याय का सिद्धांत हमेशा सुसंगत नहीं है। Riddles in Hinduism का उद्देश्य धर्म को अस्वीकार करना नहीं था बल्कि उसे तर्क, नैतिकता और मानवतावाद की कसौटी पर पुनः समझना था। अंबेडकर का मानना था कि समाज तभी आगे बढ़ सकता है जब वह धार्मिक मान्यताओं की अंधस्वीकृति के बजाय आलोचनात्मक विवेक का उपयोग करे।


संविधान-निर्माण में अंबेडकर की भूमिका

स्वतंत्र भारत के निर्माण में डॉ. अंबेडकर की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका संविधान-निर्माण में उनकी अध्यक्षता थी। ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने भारत के विविध समाज, उसकी ऐतिहासिक चुनौतियों और आधुनिक लोकतंत्र की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए ऐसा संविधान तैयार किया जो आज भी दुनिया के सबसे प्रगतिशील संविधानों में गिना जाता है। उन्होंने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को संविधान का मूल दर्शन माना और भारतीय समाज की जटिलताओं को समझते हुए सभी नागरिकों को समान अधिकार देने पर जोर दिया। सामाजिक न्याय को उन्होंने संवैधानिक ढांचे में केंद्रीय स्थान दिया, इसलिए आरक्षण, मौलिक अधिकार, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और संघीय ढाँचे जैसी व्यवस्थाएँ संविधान में शामिल की गईं। अंबेडकर का यह भी मानना था कि राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थायी नहीं हो सकता जब तक सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र स्थापित न हो जाए। इस प्रकार संविधान केवल विधिक दस्तावेज नहीं बल्कि भारतीय समाज के पुनर्गठन की रूपरेखा भी बन गया।


अंबेडकर का आधुनिक भारत पर प्रभाव

डॉ अंबेडकर आधुनिक भारत के सामाजिक और राजनीतिक ढांचे के वैचारिक स्तंभ हैं। सामाजिक समता, मानवाधिकार, लोकतंत्र और संस्थागत मजबूती के क्षेत्र में उनका योगदान आज भी भारतीय राष्ट्र-निर्माण का मार्गदर्शन करता है। वे केवल संविधान-निर्माता नहीं, बल्कि ऐसे समाज-विचारक थे जिन्होंने धर्म, परंपरा, अर्थव्यवस्था और राजनीति को एक आधुनिक मानवतावादी दृष्टि से समझने का मार्ग दिखाया। उनकी बौद्ध धम्म की ओर अंतिम यात्रा भी इसी वैचारिक श्रृंखला का प्राकृतिक परिणाम थी, जहाँ उन्होंने मानवता, करुणा और तर्क को सर्वोच्च स्थान दिया। आज का भारत, अपनी संवैधानिक संस्थाओं, आर्थिक ढांचे और सामाजिक अधिकारों के साथ, अंबेडकर की संघर्ष-यात्रा, चिंतन और दूरदर्शिता का जीवंत परिणाम है।


निष्कर्ष

डॉ भीमराव अंबेडकर केवल इतिहास के व्यक्ति नहीं, बल्कि आधुनिक भारत की आत्मा के शिल्पकार हैं। उनकी रचनाएँ भारत के सामाजिक-धार्मिक ढांचे की आलोचना करती हैं, आर्थिक शोषण की जड़ों को उजागर करती हैं, हिंदू–मुस्लिम संबंधों की जटिलता को समझाती हैं और लोकतांत्रिक राष्ट्र के निर्माण की वैज्ञानिक रूपरेखा प्रस्तुत करती हैं। वे भारत के उन दुर्लभ विचारकों में हैं जिन्होंने संघर्ष को विचार में और विचार को संस्थागत रूप में बदल दिया। अपने जीवन में इतने कठोर संघर्ष के बावजूद अंबेडकर की महानता इस बात में निहित है कि उन्होंने कभी लोकतांत्रिक मूल्यों का परित्याग नहीं किया। आज के दलित नेताओं और चिंतकों के लिए एक सबक के समान है, जो कमोबेश यह मानकर चलते हैं कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है (माओत्से तुंग)। अंबेडकर का जीवन और चिंतन आज भी हमें यह समझाता है कि स्वतंत्रता, समानता और न्याय का संघर्ष निरंतर प्रयास और विवेकपूर्ण दृष्टि से ही संभव है। आधुनिक भारत की राजनीतिक और सामाजिक संरचना उनके दर्शन और नीतियों पर आधारित है, और यही कारण है कि अंबेडकर आज भी भारतीय लोकतंत्र के सबसे विश्वसनीय मार्गदर्शक माने जाते हैं।


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