महात्मा गांधी
Written by AMBUJ SIINGH
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भूमिका
महात्मा गांधी, जिन्हें विश्व “महात्मा” (रविंद्रनाथ टैगोर द्वारा चंपारण सत्याग्रह की सफलता पर गांधीजी को दी गई उपाधि) अर्थात् “महान आत्मा” के नाम से जानता है, केवल भारत के नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए एक नैतिक और आध्यात्मिक प्रकाशपुंज रहे। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था, “गांधीजी केवल एक राजनैतिक नेता नहीं, बल्कि एक ऐसी आत्मा हैं जो सत्य और अहिंसा के मार्ग से मानवता को दिशा दे रही है, इसलिए वे महात्मा हैं।” उन्होंने सत्य, अहिंसा, प्रेम और करुणा के सिद्धांतों पर आधारित जीवन जिया और मानव सभ्यता को एक नई दिशा दी। उनका जीवन दर्शन केवल एक राजनैतिक आंदोलन तक सीमित नहीं था, बल्कि यह नैतिक पुनर्जागरण का प्रतीक था। उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि सत्य और अहिंसा जैसे नैतिक आदर्श भी राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन ला सकते हैं। गांधीजी के जीवन और विचारों का प्रभाव आज भी विश्व के कोने-कोने में महसूस किया जाता है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ। उनके पिता करमचंद गांधी पोरबंदर के दीवान थे और माता पुतलीबाई अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। बचपन में मोहनदास पर उनकी माता के धार्मिक संस्कारों का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने जैन धर्म, भक्ति परंपरा और गीता के शिक्षाओं से सत्य, संयम और करुणा का मूल्य सीखा। माता से ही बालक महात्मा को अहिंसा धार्मिक से हिसार उत्तर और साधारण रहन-सहन की सीख मिली।
प्रारंभिक शिक्षा पोरबंदर में प्राप्त की थी। इसके बाद उनके पिता अपने परिवार को अच्छी शिक्षा दीक्षा हेतु राजकोट ले आए। 13 वर्ष की उम्र में राजकोट की रहने वाली एक बालिका कस्तूरबा से मोहनदास का विवाह कर दिया गया जो उनसे एक वर्ष बड़ी थीं। इस समय मोहनदास ने चोरी, शराबखोरी और मांसाहार का व्यवहार शुरू कर दिया था। किंतु हर उस समस्या जिसे समाज में अनैतिक माना जाता था, के विरुद्ध उन्होंने प्रायश्चित किया और स्वयं के अंदर सुधार लाने में भी सफल रहे।
1888 में मोहनदास बैरिस्टर बनने के लिए लंदन चले गए, जबकि परिवार के बुजुर्गों ने उन्हें चेतावनी दी थी की विदेश जाने पर उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। उन्होंने पश्चिमी सभ्यता को निकट से देखा, और उसका प्रभाव स्वयं पर भी महसूस किया। किंतु उसे वक्त के लंदन के शाकाहारी आंदोलन एवं थियोसोफिकल सोसायटी के विश्व बंधुत्व भावना से उन्हें अपनी माता से प्राप्त प्राचीन हिंदू मान्यताओं की ओर लौटने में मदद मिली और धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी श्रद्धा और भी गहरी होती गई।
गांधीजी का दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष
1891 में भारत लौटने के बाद गांधीजी ने वकालत प्रारंभ की, लेकिन प्रारंभिक प्रयासों में उन्हें सफलता नहीं मिली। तभी उन्हें दक्षिण अफ्रीका में गुजरात के एक व्यवसायी दादा अब्दुल्ला के कानूनी सलाहकार के रूप में कार्य करने का अवसर मिला, जहाँ से उनके जीवन का निर्णायक अध्याय आरंभ हुआ। पीटरमारिट्जबर्ग रेलवे स्टेशन पर प्रथम श्रेणी का टिकट होते हुए भी गांधीजी को डिब्बे से नीचे फेंक दिया गया क्योंकि उस वक्त अफ्रीका में कुलियों (भारतीयों के लिए प्रयुक्त नस्लवादी शब्द) और गैरश्वेत लोगों को प्रथम श्रेणी में यात्रा करने की अनुमति नहीं थी।
गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में ही “सत्याग्रह” की अवधारणा दी, जिसका अर्थ था, सत्य के लिए आग्रह या सत्य की शक्ति से अन्याय की शक्ति का अहिंसक प्रतिरोध। सत्याग्रह ने गांधीजी को एक नैतिक और राजनीतिक नेता के रूप में स्थापित किया। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के नागरिक अधिकारों, पहचान और सम्मान के लिए करीब 21 वर्षों तक संघर्ष किया। दक्षिण अफ्रीका में और श्वेत लोगों के लिए उनके द्वारा किए गए संघर्ष एवं उसमें प्राप्त सफलता से उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्राप्त हुई।
1913 में गांधीजी ने ब्रिटेन द्वारा दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों पर लगाए गए 13 पाउंड के टैक्स के विरोध में भी आंदोलन किया। इस कर के विरोध में गांधीजी ने वहां रह रहे भारतीयों को साथ लेकर नटाल से ट्रांसफर तक एक पदयात्रा शुरू की जिसे उन्होंने "आखिरी सविनय अवज्ञा आंदोलन" कहा। यद्यपि इस आंदोलन के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 9 महीने जेल की सजा भी सुनाई गई, किंतु ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध इस बढ़ते प्रतिरोध के कारण अंग्रेजों को न सिर्फ गांधीजी को छोड़ना पड़ा, बल्कि इस कर को भी समाप्त करना पड़ा।
1915 में वे भारत लौटे, लेकिन अब वे केवल एक बैरिस्टर नहीं, बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नेता थे। गांधीजी का दक्षिण अफ्रीका प्रवास केवल उनके व्यक्तिगत संघर्ष की कहानी नहीं, बल्कि विश्व को सत्य, अहिंसा और नैतिक शक्ति का पाठ पढ़ाने का प्रारंभिक अध्याय है। यहीं से उन्होंने वह अनुभव और आत्मविश्वास प्राप्त किया जिसने आगे चलकर भारत की आज़ादी का मार्ग प्रशस्त किया।
भारत वापसी और भारतीय राजनीति में प्रवेश
गांधीजी ने भारत लौटने के बाद देश की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों का गहराई से अध्ययन किया। उन्होंने सर्वप्रथम लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले और अन्य नेताओं के कार्यों से प्रेरणा ली। गोखले को उन्होंने अपना “राजनीतिक गुरु” माना। गोखले की प्रेरणा से उन्होंने तत्काल राजनीति में न कूदकर पहले देश की आत्मा को समझने का निश्चय किया।
गांधीजी का दर्शन
सत्याग्रह का अर्थ है विपरीत परिस्थितियों में भी सत्य पर टिके रहना। अहिंसा के माध्यम से असत्य पर आधारित बुराई का विरोध करना ही सत्याग्रह है। इस सत्याग्रह का आधार है अहिंसा, जो निर्बल नहीं बल्कि सबल व्यक्ति का हथियार है। वस्तुतः विरोधी की शक्ति से डरते हुए उसका विरोध न करना अहिंसा नहीं बल्कि कायरता है। अहिंसा एक ऐसी शक्ति है जिसमें व्यक्ति विरोधी के हृदय पर विजय प्राप्त करता है। गांधीजी का मानना था कि संसार की सभी वस्तुओं की तरह मनुष्य का हृदय भी पिघलता है। अतः इसके लिए हमें इस स्तर पर प्रयास करना चाहिए कि हम अपने प्रतिरोधी को पराजित करने के बजाय उसके हृदय पर विजय प्राप्त कर लें। इन अर्थों में गांधीजी का सत्याग्रह सिद्धांत उग्रवादियों के निष्क्रिय प्रतिरोध के सिद्धांत से अलग हो जाता है। गांधीजी ने सत्याग्रह के कुछ साधनों का भी उल्लेख किया है जो इस प्रकार हैं - हड़ताल, अनशन, असहयोग, सविनय अवज्ञा, धरना बहिष्कार आदि। गांधीजी ने राजनीति एवं नैतिकता के निकट संबंध को स्पष्ट करते हुए कौटिल्य और मेकियावेली से अलग साधन एवं साध्य दोनों की पवित्रता पर बल दिया। यही कारण था कि उन्होंने चौरी-चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लिया।
गांधीजी के प्रारंभिक आंदोलन
1916 में लखनऊ में हुए कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान गांधीजी ने चंपारण (बिहार) किसानों की दुर्दशा के बारे में वहां के स्थानीय किसान नेता राजकुमार शुक्ला से सुना। 1917 में वहाँ पहुँचकर सत्याग्रह का प्रयोग किया। यह भारत में उनका पहला सफल प्रयोग था, जिसने उन्हें नेता के रूप में स्थापित किया। इसके बाद 1918 में प्लेग बोनस को लेकर अहमदाबाद मिल मजदूरों का आंदोलन और फसल खराब होने के बावजूद करारोपण के विरुद्ध खेड़ा किसान आंदोलन में लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया। इन आंदोलनों ने भारतीय राजनीति में नैतिकता और जनभागीदारी की नई चेतना पैदा की।
असहयोग आंदोलन (1920–22)
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश शासन ने भारत में रॉलेट एक्ट जैसे कठोर कानून लागू किए, जिससे जनता में आक्रोश फैल गया। गांधी जी ने इस "काले कानून" के विरुद्ध रॉलेट सत्याग्रह किया, तो इसका परिणाम 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड के रूप में आया, जिसमें 379 (कांग्रेस की तहकीकात समिति के अनुसार लगभग 1000) लोग मारे गए। इस आंदोलन के दौरान हुई हिंसा ने गांधीजी को यह विश्वास दिला दिया कि भविष्य के अहिंसक आंदोलनों हेतु एक अखिल भारतीय संगठन के रूप में कांग्रेस का कोई विकल्प नहीं है। इस हत्याकांड ने गांधीजी को गहराई से विचलित कर दिया। उन्होंने अंग्रेजी शासन की नैतिक वैधता को चुनौती दी। स्वराज की मांग एवं पंजाब और खिलाफत को लेकर अंग्रेजों द्वारा की गई कार्रवाई के विरुद्ध 1 अगस्त 1920 में असहयोग आंदोलन का आह्वान किया।
इस आंदोलन में जनता से अपील की गई कि वे सरकारी विद्यालयों, अदालतों, वस्त्रों और नौकरियों का बहिष्कार करें। भारत के हर वर्ग ने इस आंदोलन में भाग लिया — विद्यार्थी, किसान, मजदूर, व्यापारी और महिलाएँ। गांधीजी ने स्वदेशी वस्त्रों को अपनाने और चरखा चलाने को राष्ट्रीय कर्तव्य बताया। आंदोलन ने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। हालांकि 1922 में चौरी-चौरा की हिंसक घटना के बाद गांधीजी ने आंदोलन को रोक दिया, क्योंकि उनके लिए अहिंसा सर्वोपरि थी। आखिर यह लोगों की सुरक्षा का मामला भी था। आंदोलन के दौरान हिंसा के कारण उपनिवेशवाद को प्रतिक्रिया करने का अवसर मिल जाता तो भविष्य के आंदोलन की संभावना भी समाप्त हो सकती थी। असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद गांधीजी एक तरफ रचनात्मक कार्यक्रमों से जुड़ जाते हैं, तो दूसरी तरफ स्वराजियों द्वारा शुरू किए गए विधान परिषदों की में प्रवेश करके सरकारी कानून एवं नीतियों का विरोध के वैकल्पिक राजनीति को भी समर्थन प्रदान करते हैं
सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930–34)
गांधीजी ने असहयोग आंदोलन के बाद राजनीतिक और सामाजिक सुधारों पर ध्यान दिया। 1929 की आर्थिक मंदी ने कृषक वर्ग एवं जमींदार वर्ग के साथ ही व्यापारी वर्ग को भी काफी हद तक प्रभावित किया था। इसी समय 1919 के एक्ट को लेकर राजनीतिक सुधारों की चर्चा चल रही थी, किंतु इसमें भारतीयों को न शामिल किए जाने से गांधीजी वायसराय लॉर्ड इर्विन के समक्ष अपनी 11 सूत्रीय मांगों को करते हैं। किंतु इस संबंध में कोई आसपास सुनना मिलने पर गांधी जी पूर्ण स्वराज के नारे के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करते हैं। 1930 में उन्होंने नमक सत्याग्रह के रूप में ब्रिटिश शासन को खुली चुनौती दी। दांडी मार्च, जिसमें गांधीजी ने साबरमती से दांडी तक की यात्रा की, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का ऐतिहासिक क्षण बन गया।
नमक पर कर लगाना गरीबों पर अन्याय था, और गांधीजी ने इस अन्याय के खिलाफ “सविनय अवज्ञा आंदोलन” शुरू किया। यह आंदोलन पूरे देश में फैल गया और लाखों लोगों ने विदेशी कानूनों का उल्लंघन करते हुए गिरफ्तारी दी। यह आंदोलन अहिंसक संघर्ष का सर्वोच्च उदाहरण था और इसने अंग्रेजी शासन की नैतिक नींव को हिला दिया।
इस आंदोलन की सफलता को हम गांधी जी और इर्विन के मध्य मार्च 1931 में हुए 'दिल्ली समझौता' के रूप में देख सकते हैं। इसके बाद गांधीजी ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में प्रवेश किया। किंतु यहां औपनिवेशिक सरकार ने मुस्लिमों एवं सिखों के अलावा दलित वर्ग के लिए भी पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करके गांधी जी को भारत वापस लौटने और पुनः सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने पर विवश कर दिया।
रचनात्मक कार्यक्रम
सविनय अवज्ञा आंदोलन की समाप्ति के बाद गांधी जी समस्त भारतीय वर्ग को एकीकृत करने के उद्देश्य से रचनात्मक कार्यक्रमों से पुनः जुड़ गए। गांधीजी केवल राजनीतिक नेता नहीं थे, बल्कि सामाजिक सुधारक और मानवतावादी भी थे। उन्होंने अस्पृश्यता, जातिवाद, मद्यपान, अशिक्षा और महिलाओं के शोषण के विरुद्ध अभियान चलाया। उन्होंने हरिजन आंदोलन के माध्यम से समाज के निम्न वर्गों को सम्मान और अधिकार दिलाने का प्रयास किया।
उन्होंने कहा, “मैं उस धर्म को नहीं मानता जो मनुष्य को मनुष्य से अलग करे।” उन्होंने ग्राम स्वराज की परिकल्पना की, जिसमें हर गाँव आत्मनिर्भर हो, चरखा उसके आर्थिक जीवन का केंद्र बने, और शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण हो। गांधीजी का “रचनात्मक कार्यक्रम” भारत के पुनर्निर्माण का खाका था। गांधीजी के विचारों में धर्म और राजनीति का अद्भुत समन्वय था। वे धर्म को किसी विशेष संप्रदाय से नहीं जोड़ते थे, बल्कि उसे नैतिकता और सत्य का पर्याय मानते थे। उनके अनुसार, “राजनीति धर्म से अलग नहीं हो सकती, क्योंकि धर्म का अर्थ सत्य और न्याय के मार्ग पर चलना है।” उनकी राजनीति में कोई स्वार्थ या सत्ता की लालसा नहीं थी। वे चाहते थे कि स्वतंत्र भारत केवल राजनीतिक रूप से नहीं, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक रूप से भी स्वतंत्र हो।
भारत शासन अधिनियम 1935 के तहत वर्ष 1937 में चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस ने 8 राज्यों में सरकार बनाई। किंतु 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो जाने और कांग्रेसी सरकारों की सहमति के बगैर भारत को भी इस युद्ध में झोंक देने के विरोध में 28 माह के शासन के बाद कांग्रेसी सरकारों ने त्यागपत्र दे दिया। प्रारंभ में गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध ज्यादा असहयोगात्मक रुख नहीं अपनाया और व्यक्तिगत सत्याग्रह (1940) के द्वारा प्रतीकात्मक प्रतिरोध दर्ज कराते रहे। किंतु क्रिप्स मिशन (1942) की असफलता और जापानी आक्रमण के भय के कारण उत्पन्न हुई परिस्थितियों ने गांधीजी को एक बार पुनः अखिल भारतीय आंदोलन शुरू करने के लिए विवश कर दिया।
भारत छोड़ो आंदोलन (1942)
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान गांधीजी ने ब्रिटिश शासन से स्पष्ट शब्दों में कहा, “भारत छोड़ो”। 8 अगस्त 1942 को बम्बई में कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने “करो या मरो” का नारा दिया। यह आंदोलन पूर्ण स्वतंत्रता की मांग का प्रतीक बन गया। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, लेकिन उनके संदेश ने पूरे देश को एकजुट कर दिया। गांधीजी ने कहा, “हम स्वतंत्रता मांगेंगे नहीं, बल्कि उसे प्राप्त करेंगे, अन्यथा उसे प्राप्त करने में ने प्राणों का उत्सर्ग कर देंगे।” यह आंदोलन भारत की आज़ादी के लिए निर्णायक आंदोलन साबित हुआ। इसने ब्रिटिश शासन को यह एहसास करा दिया कि अब भारतीय जनता को दबाए रखना संभव नहीं है।
शीर्ष नेताओं की गिरफ्तार होने के बाद हजारीबाग सेंट्रल जेल से फरार जयप्रकाश नारायण के अलावा राम मनोहर लोहिया, अरूणा आसफ अली, अच्युत पटवर्धन, सुचेता कृपलानी, बीजू पटनायक आदि नेताओं ने आंदोलन का नेतृत्व किया। इस आंदोलन के दौरान जयप्रकाश नारायण ने 'आजाद दस्ता' का गठन किया था। ऊषा मेहता, राम मनोहर लोहिया एवं कुछ अन्य स्वयंसेवकों ने भूमिगत रेडियो का संचालन किया था। बलिया, तमलुक, सतारा और बिहार के नेपाल से सटे क्षेत्रों में समानांतर सरकारों की स्थापना इस आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता थी।
भारत की स्वतंत्रता एवं विभाजन तथा गांधीजी की हत्या
भारत छोड़ो आंदोलन में और उपनिवेशवाद के विरुद्ध प्रतिरोध के स्तर ने यह तय कर दिया था कि अब भारत में अंग्रेजों के बस कुछ बचे-खुचे दिन ही शेष रह गए हैं। आजाद हिंद फौज और शाही सेना के विद्रोह (1946) ने इस पटकथा पर अंतिम मोहर लगा दी। और रही सही कसर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कमजोर हुई ब्रिटेन की स्थिति में पूरी कर दी। अंततः 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हो गया। किंतु यह वह भारत नहीं था जिसके लिए स्वतंत्रता सेनानी लंबे समय से आंदोलनरत थे। भारत स्वतंत्रता के साथ पाकिस्तान के रूप में विभाजन और सांप्रदायिक दंगों का शिकार हो चुका था। पूरे देश में दंगों की एक लंबी श्रृंखला शुरू हो चुकी थी जिसे रोकने के लिए माउंटबेटन के शब्दों में "वन मैन बाउंड्री फोर्स" के रूप में गांधी जी निरंतर प्रयास करते रहे थे। भारत में रुकने का संकल्प ले चुके मुसलमान की सुरक्षा के लिए गांधीजी लगातार प्रयासरत थे और इसी के लिए दिल्ली के बिड़ला हाउस में 30 जनवरी 1948 को प्रार्थना सभा में जाते समय हिंदू कट्टरपंथी नाथूराम गोडसे की गोलियों का शिकार बन गए। उनकी हत्या ने भारत की स्वतंत्रता के जश्न को शोक सभा में तब्दील कर दिया। यद्यपि गांधी जी की हत्या कर दी गई, किंतु जैसा कि उन्होंने 1931 में कराची कांग्रेस के दौरान कहा था, "गांधी मर सकता है, लेकिन गांधीवाद सदैव जीवित रहेगा" आज भी भारत सहित संपूर्ण विश्व का पथ प्रदर्शन कर रहे हैं।
महात्मा गांधी के विचारों का विश्व पर प्रभाव
गांधीजी के सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों ने पूरे विश्व को प्रभावित किया। मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, और आंग सान सू ची जैसे विश्व नेता उनके विचारों से प्रेरित हुए। संयुक्त राष्ट्र ने 2 अक्टूबर को “अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस” घोषित किया, जो गांधीजी के प्रति विश्व की श्रद्धा का प्रतीक है। गांधीजी ने यह सिद्ध कर दिया कि नैतिक शक्ति और आत्मबल से साम्राज्यवादी शासन को भी पराजित किया जा सकता है। उन्होंने यह भी दिखाया कि सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष में हिंसा नहीं, बल्कि प्रेम और करुणा अधिक शक्तिशाली हथियार हैं।
गांधीजी का दर्शन और आज का समय
आज के युग में जब हिंसा, असहिष्णुता और स्वार्थ चरम पर हैं, गांधीजी का दर्शन और भी प्रासंगिक हो गया है। उनका संदेश हमें सिखाता है कि शांति, प्रेम और सत्य के मार्ग पर चलकर ही स्थायी परिवर्तन संभव है। गांधीजी का जीवन यह प्रमाण है कि आदर्शों पर आधारित राजनीति भी सफल हो सकती है।
उनकी शिक्षाएँ आज भी सामाजिक न्याय, पर्यावरण संरक्षण, ग्राम विकास और विश्व शांति की दिशा में प्रेरणा देती हैं। यदि मानव समाज उनके सिद्धांतों को अपनाए, तो न केवल भारत, बल्कि समूची पृथ्वी पर शांति और सद्भावना स्थापित हो सकती है। गांधीजी के विचार एवं कार्य को लेकर आइंस्टीन ने उनके बारे में कहा था, “आने वाली पीढ़ियाँ शायद ही यह विश्वास कर पाएँगी कि ऐसा कोई व्यक्ति, रक्त और मांस से बना हुआ, वास्तव में इस धरती पर चला था।” अर्थात संपूर्ण विश्व उन्हें शायद एक किंवदंती के रूप में ही स्वीकार करेगा।
उपसंहार
महात्मा गांधी का जीवन मानवता के लिए एक शाश्वत संदेश है। उन्होंने दिखाया कि एक व्यक्ति, यदि वह सत्य और अहिंसा के मार्ग पर अडिग रहे, तो दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति को भी झुका सकता है। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि भौतिक बल नहीं, बल्कि नैतिकता ही सच्ची शक्ति है। गांधीजी केवल भारत के राष्ट्रपिता नहीं, बल्कि समूची मानवता के नैतिक पथप्रदर्शक हैं। उनका सत्य, अहिंसा और करुणा का संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके समय में था।
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