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भगत सिंह की जयंती/28 सितंबर

 


शहीद-ए-आजम भगत सिंह की जयंती (28 सितंबर)

Written by AMBUJ SIINGH 

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भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ था। उनके पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। उनके चाचा मशहूर क्रांतिकारी नेता अजीत सिंह थे। उनके बचपन का नाम भगत लाल था। नेशनल कॉलेज लाहौर से उनकी पढ़ाई हुई थी। उन्हें हिंदी, उर्दू, पंजाबी के अलावा अंग्रेजी और संस्कृत भाषा का भी अच्छा ज्ञान था।


भगत सिंह अपने क्रांतिकारी चाचा अजीत सिंह से प्रेरित थे। 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड का भी उनके बाल मन पर काफी गहरा असर पड़ा था। 4 फरवरी 1922 को हुई चौरीचौरा घटना के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, तो भारत में पुनः एक बार क्रांतिकारी गतिविधियों शुरू हो गईं और यहीं से शुरू हुआ भगत सिंह का क्रांतिकारी सफर।


किंतु 1924 के दौरान भगत सिंह को अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेता देख उनके परिवार ने इन पर विवाह करने के लिए परिवार का दबाव डालना शुरू कर दिया। ऐसे में भगत सिंह ने घर छोड़ दिया और कानपुर आ गए। उस समय कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी का साप्ताहिक समाचार पत्र 'प्रताप' प्रकाशित हुआ करता था, जिसमें भगत सिंह 'बलवंत' छद्म नाम से लेख लिखने लगे। कानपुर में ही भगत सिंह की बटुकेश्वर दत्त और शिव वर्मा जैसे क्रांतिकारियों से मुलाकात हुई। कानपुर में ही 1924 में भगत सिंह क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए। 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड हुआ था। वर्ष 1927 में भगत सिंह ने इस मामले को लेकर 'विद्रोही' नाम से एक लेख लिखा था। इस मामले में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। फिर यहीं से उनके क्रांतिकारी पथ पर आगे बढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया।


27 नवंबर 1927 में भारत सचिव लॉर्ड बर्केन हेड ने साइमन कमीशन की घोषणा की। इस कमीशन को 1919 के अधिनियम की समीक्षा करने के साथ ही संवैधानिक सुधारों को लेकर सुझाव भी देना था। चूंकि इस श्वेत कमीशन में कोई भी भारतीय शामिल नहीं था, इसलिए लगभग सभी भारतीयों ने इस कमीशन का विरोध करने का निर्णय लिया। 3 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन बंबई पहुंचा। पूरे देश में साइमन कमीशन का विरोध किया गया। लाहौर में इसका विरोध करने वाले कांग्रेस के मशहूर गरमपंथी नेता लाला लाजपत राय थे। इस विरोध प्रदर्शन के दौरान लाहौर के असिस्टेंट सुप्रीटेंडेंट आफ पुलिस जेपी स्कॉट ने लाला लाजपत राय पर डंडे से निर्ममता पूर्वक प्रहार किया, जिस वजह से 17 नवंबर 1928 को उनकी मृत्यु हो गई। 


लाला लाजपत राय की मौत का गम सिर्फ कांग्रेसी नेताओं में नहीं बल्कि क्रांतिकारी में भी था। 10 दिसंबर 1928 को बम का दर्शन किताब लिखने वाले मशहूर क्रांतिकारी भगवती चरण बौहरा की पत्नी दुर्गा देवी के नेतृत्व में क्रांतिकारियों की एक बैठक हुई, जिसमें यह तय किया गया कि क्रांतिकारी स्कॉट की हत्या करके लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेंगे। इस बैठक में यह तय किया गया की जयगोपाल (जो बात में क्रांतिकारियों के विरुद्ध सरकारी गवाह बन गए थे) स्कॉट की पहचान करके क्रांतिकारियों को उसके बारे में बताएंगे और भगत सिंह एवं राजगुरु उसकी हत्या करेंगे। पर समस्या इस बात की थी कि जयगोपाल ने कभी सांडर्स को देखा नहीं था। फिर वही हुआ जिस बात का डर था। 


दरअसल 17 दिसंबर को स्कॉट ऑफिस नहीं आया क्योंकि ब्रिटेन से उसकी सास आने वाली थीं और वह उन्हें रिसीव करने गया था। ऐसे में सांडर्स को एस्कॉर्ट समझ कर जयगोपाल ने भगत सिंह और राजगुरु को इशारा कर दिया और राजगुरु ने तत्काल सांडर्स को गोली मार दी। भगत सिंह दौड़ते हुए राजगुरु के पास आए और उन्होंने कहा कि यह वह आदमी नहीं है लेकिन तब तक राजगुरु गोली चला चुके थे। ऐसे में भगत सिंह ने भी सैंडर्स के ऊपर दो-तीन गोलियां चला दी। सैंडर्स को गोली मारने के बाद भगत सिंह और राजगुरु के डीएवी कॉलेज के हॉस्टल की ओर भागे जहां एक पुलिस अधिकारी चानन सिंह (या चरण सिंह) उनका पीछा कर रहा था। 10 दिसंबर की बैठक में यह तय किया गया था कि जब भगत सिंह और राजगुरु स्कॉट की हत्या करके भागेंगे तब मार्ग में कोई अवरोध उत्पन्न होने पर चंद्रशेखर आजाद वहां से निकलने में मदद करेंगे। चंद्रशेखर आजाद ने उसे पुलिसकर्मी से कहा कि 'वापस चले जाओ। मैं किसी भारतीय को नहीं मारना चाहता हूं।' किंतु वह लगातार आगे बढ़ता रहा। ऐसे में राजगुरु (कुछ अन्य स्रोतों के अनुसार चंद्रशेखर आजाद) ने उसे मार दी।


सांडर्स की हत्या की बात पूरे लाहौर शहर में पोस्टर लगाए गए, 'JP Sanders is dead. Lala Lajpat Rai is avenged' यानि जेपी सांडर्स मार दिया गया है, लाला लाजपत राय का बदला ले लिया गया है। इस कार्रवाई के समय भगत सिंह के पास एक पोस्टर था जिस पर लिखा था, 'Scott Killed' यानि स्कॉट मार दिया गया है। बाद में यही पोस्टर उनके खिलाफ लाहौर षड़यंत्र केस में सुबूत के तौर पर पेश किया गया।


सांडर्स की हत्या के बाद भगत सिंह के लिए लाहौर से भागना काफी कठिन काम था क्योंकि लाहौर में चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। ऐसे में भगत सिंह और राजगुरु ने कलकत्ता भगाने का प्लान बनाया। इन लोगों ने तय किया कि सुबह देहरादून एक्सप्रेस से कलकत्ता चले जाएंगे। भगत सिंह ने पहली बार अपना गेटअप पूरी तरह से चेंज कर लिया और रंजीत नाम से एक अंग्रेजी वेशभूषा में स्टेशन पर पहुंच गए। साथ में उनकी पत्नी सुजाता के रूप में क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गा भाभी अपने 3 साल के बच्चे के साथ थीं। उनके साथ राजगुरु भी उनके नौकर के रूप में थे। राजगुरु तृतीय श्रेणी के डिब्बे में जबकि भगत सिंह दुर्गा भाभी के साथ प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठकर भाग निकले और पुलिस वाले उन्हें देखकर समझे कि ये कोई बड़े साहब लोग हैं, और उन्हें जाने दिया। इस तरह क्रांतिकारी भगत सिंह और राजगुरु दुर्गा भाभी के साथ कलकत्ता पहुंच गए, जहां भगवती चरण वोहरा ने उन्हें स्टेशन पर रिसीव किया और अपने एक मित्र छज्जू राम के यहां ठहराया। यहां पर भगत सिंह को एक नया नाम 'हरी' मिला। यहां वह इसी नाम से जाने जाते थे। भगत सिंह ने कुछ महीनों यहीं पर बिताया। यहां पर उन्होंने बंगाली वेशभूषा अपना ली और काम चलाऊ बांग्ला भाषा भी सीख ली थी।


सांडर्स की हत्या की कुछ समय बाद भगत सिंह कलकत्ता से वापस आगरा आ गए और हींग मंडी में किराए का मकान लेकर रहने लगे। यहीं पर उनकी उनके साथी क्रांतिकारियों से मुलाकात हुई। इन सभी क्रांतिकारियों में विचार-विमर्श किया कि सांडर्स की हत्या का अंग्रेजों पर बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा है। अगर कुछ प्रभाव पड़ा है तो सिर्फ इतना कि उन्होंने अपने परिवार को वापस इंग्लैंड भेज दिया है। ऐसे में क्रांतिकारियों ने यह जरूरी समझा गया कि अंग्रेजों या अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक बार पुनः कोई बड़ी क्रांतिकारी कार्रवाई की जाए।


इसी दौरान ब्रिटिश सरकार ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट और पब्लिक सेफ्टी बिल के माध्यम से श्रमिक एवं राजनीतिक गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाने का प्रयास कर रही थी। ऐसे में इन क्रांतिकारियों ने सदन में प्रवेश करके इसका विरोध करने का फैसला किया। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त सदन की कार्रवाई के समय सदन में प्रवेश कर गए और उन्होंने किसी को जान से मारने या घायल न करने के बजाय सदन में बैठे लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उन्होंने सदन में खाली स्थान पर बम फेंका और इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद के नारे लगाते हुए पैंफलेट बांटने लगे, जिस पर लिखा था, "बहरों को सुनाने के लिए तेज आवाज में बोलना पड़ता है, तभी उनकी समझ में आता है।" 


भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने भागने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं की और वहीं रुककर अपनी गिरफ्तारी दी। गिरफ्तारी के बाद उन पर इस घटना के संबंध में केस चलाया गया जिस आधार पर उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली। किंतु गिरफ्तारी के समय भगत सिंह के पास से जो पिस्तौल बरामद हुई, वह वही पिस्टल थी, जिससे उन्होंने सांडर्स की हत्या की थी। बाद में लाहौर षड़यंत्र केस के तहत भगत सिंह को सुखदेव (षड्यंत्र में शामिल होने की जुर्म में) और राजगुरु के साथ फांसी की सजा सुनाई गई।


भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु की फांसी की सजा 24 मार्च 1931 को मुकर्रर की गई थी। किंतु अंग्रेजों ने 23 मार्च को ही कैदियों से कह दिया गया कि वे अपनी बैरक में चले जाएं। उसके बाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को बताया गया कि आज ही उन्हें फांसी दी जाएगी। दरअसल अंग्रेजों को इस बात का भय था कि अन्य क्रांतिकारी भगत सिंह और साथियों को छुड़ाने का प्रयास अवश्य करेंगे। इसी तरह के एक प्रयास के तहत चंद्रशेखर आजाद ने वायसरण इर्विन की ट्रेन को पलटने का प्रयास भी किया था। अतः इन तीनों क्रांतिकारियों को फांसी के फंदे के पास ले जाया गया। वहां उनके पैरों को बांध दिया गया और काले कपड़े से उनका चेहरा ढ़ककर गले में फांसी का फंदा डाल दिया गया। सुखदेव ने इस बात पर जोर दिया कि सबसे पहले उन्हें फांसी के फंदे पर लटकाया जाए। इस तरह तीनों क्रांतिकारियों को एक-एक करके फांसी के फंदे पर लटका दिया गया। 


लाहौर जेल के एक अधिकारी को जब इन तीनों शहीदों के शवों की पहचान करने के लिए कहा गया तो वह फांसी की इस सजा को देखकर इतना व्यथित हुआ कि उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया, तो उसे तत्काल निलंबित कर दिया गया। जेल अधिकारियों की कोशिश थी कि जेल के अंदर ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का अंतिम संस्कार कर दिया जाए। पर धुआं उठता देख लोगों को शक हो सकता था। इसलिए यह तय किया गया कि पुलिस के ट्रक में इन तीनों क्रांतिकारियों का शव रखकर रावी नदी के किनारे ले जाकर अंतिम संस्कार कर दिया जाएगा। किंतु जब वे रावी नदी के किनारे पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि वहां पानी बहुत कम था। ऐसे में वे इन तीनों शवों को लेकर सतलज नदी के किनारे फिरोजपुर पहुंच गए, जहां उन्होंने तीनों शहीदों के शवों का जल्दबाजी में अंतिम संस्कार करना शुरू कर दिया। किंतु तब तक लोगों की भीड़ भी वहां पहुंच चुकी थी। ऐसे में अंग्रेज इन तीनों शहीदों का अधजला शव नदी में फेंक कर भाग खड़े हुए।


अंग्रेजी प्रशासन के इस कुकृत्य ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। सभी लोगों ने अंग्रेजों की कड़े शब्दों में निंदा की। भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत ने लोगों को देश के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने के लिए प्रेरित किया। संपूर्ण समर्पण की इसी भावना से जब सारा देश अंग्रेजों की विरुद्ध खड़ा हो गया, तो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अपनी दीन-हीन परिस्थितियों के कारण अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।


जय हिन्द!






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