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25 सितंबर/पंडित दीनदयाल उपाध्याय जयंती/अंत्योदय दिवस


पंडित दीनदयाल उपाध्याय

Written by AMBUJ SIINGH 

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प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को धनकिया नामक स्थान पर जयपुर अजमेर रेलवे लाइन के पास (राजस्थान) हुआ था। नागला चंद्रभान (मथुरा) दीनदयाल जी का पैतृक गांव था। इनके पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय सहायक स्टेशन मास्टर थे और माता रामप्यारी एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। बचपन में ही माता-पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका पालन-पोषण नाना-नानी और चाचा ने किया।

प्रारंभिक शिक्षा गंगा मध्य विद्यालय, सिकंदरा में हुई। बाद में उन्होंने पिलानी के बिरला कॉलेज से इंटरमीडिएट किया। इसके बाद कानपुर से स्नातक और आगरा विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की।


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ाव

दीनदयाल उपाध्याय विद्यार्थी जीवन में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से जुड़ गए। उनका व्यक्तित्व सरल, ईमानदार और सेवाभावी था, जिससे वे शीघ्र ही प्रचारक के रूप में संघ के प्रमुख कार्यकर्ताओं में गिने जाने लगे। वे जनसंघ और संघ के सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार में सक्रिय रूप से योगदान देने लगे।


राजनीति में योगदान

दीनदयाल उपाध्याय भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। वे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निकट सहयोगी रहे और उनके निधन के बाद जनसंघ की कमान उन्होंने ही संभाली। वह संगठनात्मक कार्यों में अत्यंत निपुण थे। उन्होंने कम समय में ही जनसंघ को एक संगठित और मजबूत राजनीतिक दल का रूप दे दिया। उनका मानना था कि राजनीति का उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्ति नहीं बल्कि समाज की सेवा होना चाहिए।


साहित्यिक योगदान

राजनीतिक और दार्शनिक विचारों के साथ-साथ दीनदयाल उपाध्याय एक कुशल लेखक भी थे। उन्होंने "राजनीति में सिद्धांत", "राष्ट्रीय जीवन की दिशा", और "भारतीय अर्थनीति" जैसे विषयों पर लेखन किया। इसके अलावा वे "पांचजन्य" और "राष्ट्रधर्म" जैसे पत्र-पत्रिकाओं से भी जुड़े रहे।


एकात्म मानववाद का दर्शन

दीनदयाल उपाध्याय ने भारतीय राजनीति और समाज को दिशा देने के लिए "एकात्म मानववाद" का दर्शन प्रस्तुत किया। उनका मानना था कि भारतीय समाज और संस्कृति की जड़ें पश्चिमी भौतिकवादी विचारधाराओं से अलग हैं। उन्होंने मानव जीवन के चार आयाम – शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा – के समन्वय को महत्व दिया।उनका यह विचार भारतीय संस्कृति, परंपरा और मूल्यों पर आधारित था, जिसका उद्देश्य एक समतामूलक और मानवीय समाज की स्थापना करना था।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद भारतीय राजनीति, समाज और अर्थनीति के लिए एक वैचारिक आधार के रूप में प्रस्तुत किया गया। इसका उद्देश्य भारतीय संस्कृति और परंपरा पर आधारित एक वैकल्पिक विकास मॉडल देना था, जो न तो पूर्णतः पूंजीवादी हो और न ही साम्यवादी। यह विचारधारा 1965 में भारतीय जनसंघ के अधिवेशन में आधिकारिक रूप से प्रस्तुत हुई।


एकात्म मानववाद के मुख्य सिद्धांत

भारतीय संस्कृति एकात्मवादी है जो जीवन के विभिन्न अंगों के दृश्य भेद को स्वीकार करते हुए उनके स्तर में एकता की खोज एवं उनमें समन्वय स्थापित करती है। यह एक ऐसी अवधारणा है जो सर्पिलाकार मंडल द्वारा स्पष्ट की जा सकती है जिसके केंद्र में व्यक्ति, व्यक्ति से जुड़ा घेरा घर-परिवार, परिवार से जुड़े समाज-जाति, फिर राष्ट्र और विश्व, फिर अनंत ब्रह्मांड को अपने में समाए हुए है। इसमें एक से जुड़कर दूसरे का विकास किया जाता है, किंतु हमारी संपूर्ण व्यवस्था का केंद्र मानव होना चाहिए।


एकात्म मानववाद भारतीय संस्कृति पर आधारित दृष्टिकोण है, जिसका आधार भारतीय जीवन मूल्यों और धर्म पर रखा गया। इसमें ‘धर्म’ का अर्थ नैतिक कर्तव्य और सामाजिक व्यवस्था है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने समाज को मात्र व्यक्तियों का समूह नहीं बल्कि एक सजीव प्राणी की तरह देखा गया। उन्होंने बताया कि मानव का चार आयामी स्वरूप है, जिसमें शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के मध्य संतुलन आवश्यक है।


पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की विकास की अवधारणा पश्चिम की भौतिकवादी सोच के बजाय आध्यात्मिकता और नैतिकता से युक्त थी। इसलिए उनकी अर्थनीति में स्वदेशी का महत्व देते हुए आत्मनिर्भरता, ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था और स्थानीय संसाधनों पर जोर दिया गया है। एकात्म मानववाद के अंतर्गत आत्मनिर्भरता का संदेश दिया गया है। ‘स्वदेशी’ और ‘स्वावलंबन’ पर आधारित यह मॉडल आज के मेक इन इंडिया जैसे अभियानों से भी जुड़ता है।


पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद संबंधी विचार भारतीय समाज के अनुरूप विचार जो पश्चिम से आयातित विचारधाराओं की बजाय भारतीय परिस्थिति में जड़ें जमाने वाला दर्शन था। इसमें संपूर्ण मानव दृष्टिकोण दिखाई देता है जो केवल भौतिक सुख नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति को भी विकास का हिस्सा मानता है। इस दर्शन में वर्ग संघर्ष की जगह समानता और सहयोग पर बल दिया गया है अर्थात् इसमें समाज के विभिन्न वर्गों के सामंजस्य को प्राथमिकता प्रदान की गई है। 


आलोचनात्मक पक्ष

एकात्म मानववाद दर्शन में अस्पष्टता और अमूर्तता दिखाई देती है। दार्शनिक दृष्टि से यह विचार आकर्षक तो है, परंतु व्यवहारिक नीतियों और ठोस कार्ययोजना के अभाव में यह अधिक सैद्धांतिक ही बना रहा। इसके अंतर्गत वैज्ञानिक अर्थनीति का अभाव दिखाई देता है क्योंकि आधुनिक अर्थशास्त्र में जिस प्रकार आंकड़ों, उत्पादन क्षमता और पूंजी प्रबंधन पर जोर दिया जाता है, प्रायः उसकी कमी इसमें दिखाई देती है।इस दर्शन में स्वदेशी पर अधिक बल दिया गया है। किंतु वैश्वीकरण और प्रतिस्पर्धा के इस युग में इससे कभी-कभी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और तकनीकी सहयोग को नज़रअंदाज़ करने का खतरा भी बन जाता है।


इस दर्शन में समाज को जीवंत प्राणी की तरह माना जाता है। वैसे तो सांस्कृतिक रूप से यह एक रोचक अवधारणा है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से इसे लागू करना अत्यंत कठिन है। राजनीतिक उपयोगिता की दृष्टि से यह दर्शन जनसंघ और आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी के लिए एक वैचारिक आधार तो बना, परंतु व्यावहारिक राजनीति में इसका अनुपालन सीमित ही दिखाई देता है।


आज के दौर में जब सतत विकास, समावेशी विकास और स्थानीयकरण पर चर्चा होती है, तो एकात्म मानववाद की अवधारणा और भी प्रासंगिक लगती है। यह विचार पर्यावरण संरक्षण, आत्मनिर्भरता के साथ ही लुप्त होती जा रही नैतिक राजनीति पर भी जोर देता है। हालांकि, इसे व्यवहार में लाने के लिए अधिक स्पष्ट और व्यावहारिक नीतिगत ढांचे की आवश्यकता है।अतः हम कह सकते हैं कि एकात्म मानववाद संबंधी विचार को एक दिशा-सूचक विचारधारा तो माना जा सकता है, किन्तु सम्पूर्ण और व्यवहारिक आर्थिक-राजनीतिक मॉडल के रूप में इसकी स्वीकार्यता सीमित ही रही है।


निधन

11 फरवरी 1968 को मुगलसराय (अब पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन) रेलवे स्टेशन पर रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु आज भी कई सवाल खड़े करती है।

उनके निधन के बाद भी उनका विचार "एकात्म मानववाद" भारतीय राजनीति और समाज के लिए मार्गदर्शक बना हुआ है।


अंत्योदय दिवस

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने "अंत्योदय" सिद्धांत में समाज के अंतिम व्यक्ति (सबसे गरीब, उपेक्षित, वंचित) तक विकास के लाभ पहुँचाने की बात कही। "अंत्योदय" का अर्थ है – समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति का उदय (कल्याण)। भारत सरकार ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जन्मदिवस (25 सितम्बर) को अंत्योदय दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। इसके पीछे उद्देश्य था पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को जन-जन तक पहुँचाना और नीति-निर्माण में अंतिम व्यक्ति को केंद्र में रखना।


उपसंहार

दीनदयाल उपाध्याय का जीवन सादगी, सेवा और संगठन को समर्पित था। उन्होंने भारतीय राजनीति को सांस्कृतिक और नैतिक आधार देने का प्रयास किया। आज भी उन्हें एक राष्ट्रनिष्ठ विचारक, संगठनकर्ता और निस्वार्थ कर्मयोगी के रूप में याद किया जाता है।




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