42 वें संविधान संशोधन , 1976 के द्वारा भारत के संविधान की उद्देशिका में 'पंथनिरपेक्ष' शब्द जोड़कर भारत को एक पंथनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है । किंतु केशवानंद भारती (1973) और एस आर बोम्मई वाद (1994) से पता चलता है कि मूल अधिकारों में वर्णित अनुच्छेदों से भी पंथनिरपेक्षता भारतीय संविधान के आधारभूत लक्षण के रूप में स्पष्ट होता है ।
'पंथनिरपेक्षता' अंग्रेजी शब्द 'सेक्युलरिज्म' , जो मूलतः लैटिन शब्द 'सेक्युलम' से बना है , का हिन्दी अनुवाद है , जिसका अर्थ है - इहलोक से संबंधित । वस्तुतः यह यूरोप से आयातित शब्द है । यूरोप में मध्यकाल में धर्म (पंथ) का राजनीति में व्यापक हस्तक्षेप था । राज्य को एक दैवी संस्था माना गया था , और चर्च को इस संस्था का प्रतिनिधि । धर्म सुधार आंदोलनों के बाद यूरोप में सम्प्रभु राज्य की स्थापना हुई , तब विभिन्न विचारकों ने पूछा कि राज्य धर्म या चर्च से क्यों आदेशित हो ? ऐसे में दोनों के अलगाव पर बल दिया गया । इसी ने पंथनिरपेक्ष या सेकुलर राज्य को जन्म दिया । इंग्लैंड के प्रसिद्ध विचारक जॉर्ज जैकब होलिओक को 1851 ईस्वी में और औपचारिक रूप से धर्मनिरपेक्षतावाद का संस्थापक माना गया है ।
भारत में पंथनिरपेक्षता का विकास धार्मिक विविधता की परिस्थितियों में हुआ है । यहां राज्य और धर्म के बीच सत्ता के लिए कभी संघर्ष नहीं हुआ , बल्कि सहयोग की स्थिति ही रही । किंतु आधुनिक काल में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के बाद अपने शासन को स्थायित्व प्रदान कनरे के लिए इसी धार्मिक विविधता का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने यहां 'बांटो और शासन करो' की नीति अपनाई , जिसने आगे चलकर की सांप्रदायिकता एवं द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को जन्म दिया , जिससे भारत एवं पाकिस्तान का विभाजन हुआ ।
पंथ और धर्म को सामान्यता अंग्रेजी के 'रिलीजन' ( लैटिन भाषा के 'रिलीगेर' शब्द से विकसित) शब्द से जोड़ा जाता है , जिसका अर्थ होता है - आदिम पाप के कारण परमात्मा से दूर हो चुकी आत्मा को परमात्मा से पुनःबांधना । पंथ (पूजा-पद्धति) में चार तत्व होते हैं - एक महान (जैसे ईसाई धर्म में ईसा मसीह और इस्लाम धर्म में पैगंबर साहब) । दूसरा तत्व है , एक स्थान (जैसे ईसाई धर्म में रोम और इस्लाम धर्म में मक्का) । तीसरा तत्व है , एक किताब (जैसे ईसाई धर्म में बाइबिल और इस्लाम में कुरान) । चौथा तत्व है , एक पूजा-पद्धति ।
हिंदू धर्म इन चारों विशेषताओं से परे है क्योंकि न यहाँ कोई एक महान है , न कोई एक प्रमुख स्थान है , न ही यहाँ कोई एक प्रमुख पुस्तक है या कोई एक पूजा-पद्धति है । वस्तुतः हिंदू धर्म में धर्म का अर्थ ही पंथ से परे है । यहां धर्म धृ धातु से बना है , जिसका अर्थ है 'धारण करना'। 'धारयति इति धर्म:' , अर्थात जो धारण करने योग्य है , वही धर्म है । इस संबंध में 'दशकम धर्म लक्षणम्' अर्थात धैर्य , क्षमा , संयम , अस्तेय , सुचिता , इंद्रियनिग्रह , बुद्धि का प्रयोग , ज्ञान का अर्जन , सत्य बोलना , क्रोध नहीं करना , जैसे नैतिक मूल्यों को ही धर्म माना गया है । चूंकि मनुष्य इस धर्म (नैतिक मूल्यों) से पृथक रहकर अपना संपूर्ण विकास नहीं कर सकता है । इसलिए धर्म को आचार संहिता का पर्याय मानते हुए हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्षता की जगह पंथनिरपेक्षता शब्द का प्रयोग किया गया है ।
पंथनिरपेक्षता की निम्नलिखित मूलभूत कसौटियाँ निर्धारित की गई हैं -
1. राज्य का अपना कोई घोषित धर्म ना हो ।
2. राज्य के संचालन या नीति-निर्धारण में धर्म का कोई स्थान न हो ।
3. व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से धार्मिक मामलों में स्वतंत्रता हो ।
4. राज्य धार्मिक आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव न करे ।
5. राजनीति से धर्म अलग रहे अर्थात राज्य धार्मिक कार्यक्रमों से दूरी बनाकर रखे ।
पंथनिरपेक्षता की पश्चिमी अवधारणा में मूलतः निम्नलिखित तत्व शामिल हैं -
1. राज्य का धर्म से पृथक्करण ।
2. लोगों को धार्मिक मामलों में स्वतंत्रता ।
3. नागरिकों को उनके धर्म के बावजूद समान नागरिकता प्रदान करना ।
इस कसौटी के बावजूद पश्चिमी देशों में पंथनिरपेक्षता की भिन्न-भिन्न अवधारणाएं पाई जाती हैं । आधुनिक राज्यों में प्रथम स्थान अमेरिका का आता है , जहां संवैधानिक रूप से जिस राज्य की स्थापना की गई है , वह चर्च और राज्य के पृथक्करण पर आधारित है । अमेरिका के विपरीत इंग्लैंड में एंग्लिकन चर्च राज्य की एक संस्था है , फिर भी इंग्लैंड को पंथनिरपेक्ष राष्ट्र माना गया है । तीसरे किस्म का राष्ट्र रूस है , जहां पंथनिरपेक्षता के तहत धर्म के प्रचार पर रोक है , किंतु धर्म का विरोध किया जा सकता है ।
इतिहासकार विपिन चंद्र के अनुसार , भारत में पंथनिरपेक्षता की अवधारणा यूरोप से कुछ मामलों में भिन्न है । यहां पंथनिरपेक्षता के तत्व हैं -
1. धर्म का राजनीति में हस्तक्षेप ना हो ।
2. शासन सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहे ।
3. शासन धर्म के आधार पर नागरिकों से भेदभाव ना करें ।
4. राज्य सांप्रदायिकता का विरोध करे क्योंकि इसने विभाजन को जन्म दिया था ।
5. धार्मिक विविधता के कारण धार्मिक सहिष्णुता एवं धार्मिक सद्भाव पर बल दिया गया है ।
कुछ विचारकों का मानना है कि राज्य से धर्म का पृथक्करण संभव नहीं है । जैसे राजनेता पद ग्रहण करने से पूर्व ईश्वर की शपथ लेते हैं , रविवार को या धार्मिक नेताओं के जन्मदिवस पर छुट्टियों का आयोजन किया जाता है । अमेरिका में डार्विन के सिद्धांत का विरोध किया गया है , क्योंकि यह बाइबिल के सिद्धांत का विरोधी है । इसके अलावा वहाँ सरकार का झुकाव अन्य धर्मों की अपेक्षा ईसाई धर्म की ओर है ।
चर्च और राज्य के बीच पूर्ण पृथक्करण इसलिए भी संभव नहीं दिखता है क्योंकि राज्य और धर्म की इकाई मनुष्य है । किंतु यह निर्धारण करना कठिन है , कि कौन से विषय धर्म के अंतर्गत आते हैं और कौन से विषय राज्य के अंतर्गत आते हैं । इसीलिए पंथनिरपेक्ष राज्यों के स्वरूप के अंतर्गत ही वहां धर्म और राज्य के बीच तनाव के मुद्दे भी देखने को मिलते हैं ।
वस्तुतः भारतीय पंथनिरपेक्षता धर्म (पंथ) और राज्य के पृथक्करण पर बल नहीं देती है । यद्यपि यहाँ राज्य का कोई धर्म नहीं है और राजनीतिक सत्ता का स्रोत भी कोई दैवी शक्ति नहीं , बल्कि यहां की जनता है । किंतु राज्य धर्म के प्रति तटस्थ नहीं है । यहां राजनेता विभिन्न धार्मिक उत्सव में शामिल होते हैं , धार्मिक नेताओं के जन्मोत्सव मनाया जाते हैं , और उस दिन छुट्टी भी रखी जाती है । यहां संविधान सर्वोच्च है , फिर भी विभिन्न धर्मों के अलग-अलग कानून हैं , और राज्य धार्मिक क्षेत्रों में जरूरत पड़ने पर कानून के द्वारा इसमें हस्तक्षेप भी करता है । तीन तलाक के विरुद्ध कानून इसका उदाहरण है ।
वस्तुतः भारत में धार्मिक विविधता , स्वतंत्रता के समय हिंदू और मुसलमानों के बीच विश्वास का संकट तथा समान नागरिक संहिता की अनुपस्थिति ने भारतीय पंथनिरपेक्षता के स्वरूप को पृथक्करण के बजाय धार्मिक सहिष्णुता एवं धार्मिक सहभागिता के माध्यम से राज्य को समावेशी स्वरूप प्रदान किया है ।
बहुत उम्दा लेख....
ReplyDeleteHari om
Deleteशानदार लेख
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteआपके ब्लोग को सब्सक्राइब कैसे करें?
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