भारत में लोकतंत्र चुनाव और जाति
Democracy, Election and Caste in India
By : AMBUJ KUMAR SINGH
संप्रभुता के स्रोत के आधार पर जिन शासन प्रणालियों की संकल्पना संरचित की गई है, उनमें एक लोकतंत्र भी है। चुनाव लोकतंत्र की धुरी है, जिसके माध्यम से लोक कल्याण की अवधारणा को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। किंतु भारत में विभिन्न जातियों में बँटे समाज एवं राजनीति के जातीयकरण से लोकतंत्र के मूल उद्देश्यों की प्राप्ति में बाधा आती रही है, और यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था की यही सबसे बड़ी विडंबना है।
लोकतंत्र को सीमित अर्थों में, इसके राजनीतिक पहलू पर बल देते हुए, एक शासन-प्रणाली के रूप देखा जाता है। शाब्दिक रूप से 'डेमोक्रेसी' (Democracy) 'डेमोस' (Demos) और 'क्रेटोस' (Cratos) शब्द से मिलकर बना है। डेमोस का अर्थ है - जनता तथा क्रेटोस का अर्थ है - शासन। इस प्रकार डेमोक्रेसी का अर्थ हुआ - जनता का शासन।
लोकतंत्र की सर्वाधिक लोकप्रिय परिभाषा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने 1863 ई के गेट्सवर्ग संबोधन में देते हुए, इसे जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता का शासन कहा था। अगर इन शब्दों की गहराई में जाएं, तो इसका अर्थ हुआ, लोकतंत्र एक ऐसी शासन-प्रणाली है जिसमें वयस्क मताधिकार के माध्यम से जनता अपने प्रतिनिधियों को निर्वाचित करती है। यह प्रतिनिधि समाज के विभिन्न घटकों के समुचित प्रतिनिधित्व को ध्यान में रखते हुए कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।
अगर अपने सीमित अर्थों में लोकतंत्र एक साधन है, तो व्यापक अर्थों में यह समाज में जीने का तरीका (Way of life) है। वस्तुतः लोकतंत्र मूल्यों की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुत्व, सहअस्तित्व, धार्मिक सहिष्णुता जैसे मूल्य शामिल हैं। लोकतंत्र का उद्देश्य किसी राजनीतिक, सामाजिक अथवा आर्थिक व्यवस्था का आरोपण मात्र नहीं है। इसका उद्देश्य कुछ निश्चित मूल्यों संयुक्त लोकतांत्रिक व्यक्ति का निर्माण करना है। इस प्रकार लोकतंत्र का साध्य व्यक्ति है, जबकि व्यवस्था साधन मात्र है।
एक शासन-प्रणाली के रूप में लोकतंत्र में वैधता का स्तर अन्य प्रणालियों से अधिक है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव तथा बहुमत का नियम लोगों के विश्वास को बढ़ाता है। यही कारण है कि लोग एक तरफ सामाजिक परिवर्तन को स्वीकार कर लेते हैं, तो दूसरी तरफ लोकतांत्रिक प्रक्रिया एवं संस्थाओं द्वारा पारित कानूनों का स्वेच्छापूर्वक पालन भी करते हैं।
लोकतंत्र में समानता पर विशेष बल दिया गया है। समानता इसकी व्यावर्तक (चारों ओर घूमने वाली) विशेषता है। लोकतंत्र का आधारभूत द्वंद्व यह है कि यह राजनीतिक समानता से सामाजिक-आर्थिक समानता की ओर प्रस्थान करना चाहता है। जो भी सरकार इस व्यवस्था को स्थापित करने में सफल होती है, तथा आदर्श रूप में, जो समाज जितना अधिक इसे स्वीकार करता है, वह उतना ही अधिक लोकतांत्रिक होता है।
लोकतंत्र की अत्यंत महत्वपूर्ण विशेषता है, इसकी परिवर्तन के अनुकूल होने की क्षमता। चूँकि यह जनभागीदारी पर आधारित व्यवस्था है, इसलिए लोगों को अपने ऊपर शासन करने का विश्वास एवं प्रशिक्षण भी प्राप्त होता है। डॉ भीमराव अंबेडकर के शब्दों में, "इसमें बिना रक्तपात के जनता के सामाजिक-आर्थिक जीवन में क्रांतिकारी बदलाव लाए जा सकते हैं।" ऐसा इसमें सरकार की संवेदनशीलता तथा अंतिम शक्ति जनता के हाथ में होने के कारण ही संभव है।
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहां अप्रत्यक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था है, अर्थात जनता सीधे शासन नहीं करती है, बल्कि अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन करती है। ऐसा विशाल भूभाग एवं जनसंख्या के कारण किया गया है। यहां विधायिका के सदस्यों में से ही कार्यपालिका के सदस्य चुने जाते हैं, जो न्यायपालिका के सदस्यों का चयन करते हैं।
भारतीय संविधान के भाग 15 में निर्वाचन संबंधी व्याख्या की गई है। संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुसार निर्वाचनों के अधीक्षण, निदेशन एवं नियंत्रण का दायित्व चुनाव आयोग को सौंपा गया है, जिसकी स्थापना 1950 ई में हुई थी। 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के समय से ही भारत में अनुच्छेद 326 के अनुसार वयस्क मताधिकार लागू है, जिसे 61वें संविधान संशोधन अधिनियम 1989 द्वारा 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दिया गया है। हालांकि यह बड़े आश्चर्य की बात है कि भारत को सभ्यता का पाठ पढ़ाने का झूठा दंभ भरने वाले ब्रिटेन जैसे स्वतंत्र देश में यह व्यवस्था 1928 में पूरी तरह से लागू हो पाई।
लोकतंत्र में प्रतिनिधियों के चुनाव के अनेक तरीके हैं; जैसे - सरल बहुमत प्रणाली, आनुपातिक प्रणाली तथा मिश्रित प्रणाली। भारत में प्रत्येक सामान्य व्यक्ति को निर्वाचित होने का अधिकार देते हुए लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों हेतु सरल बहुमत प्रणाली को अपनाया गया है। ब्रिटेन से ली गई इस प्रणाली को 'फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम' के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रणाली में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले व्यक्ति को विजयी घोषित किया जाता है। हालांकि भारत में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्य सभा तथा विधान परिषद के चुनावों में समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाया गया है।
भारत में सरल बहुमत प्रणाली अपनाने के पीछे कारण था कि यह प्रणाली कम जटिल है। यहां मतदाता अपने प्रतिनिधि को जानता है तथा उसे उसके कार्यों के लिए उत्तरदायी भी ठहरा सकता है। यह प्रणाली सरकार के स्थायित्व के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है। किंतु इस प्रणाली का यह दोष है कि यह बड़े दलों के लिए तो लाभदायक सिद्ध हुई है, किंतु छोटे दलों के लिए यह कम लाभदायक रही है। समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली काफी जटिल है, क्योंकि इसमें मतों के प्रतिशत के अनुपात में विधायिका में सीटें बंट जाती हैं।
अगर हम लोकतंत्र के विकास की दृष्टि से देखें, तो इसके तीन चरण बताए गए हैं - प्रथम चरण प्रक्रियामूलक लोकतंत्र का है, दूसरा चरण विमर्शमूलक लोकतंत्र का है, तथा तीसरा चरण जनभागीदारीमूलक लोकतंत्र का है। अगर हम भारत की दृष्टि से बात करें, तो यहां लोकतंत्र अपनी प्रारंभिक अवस्था में है। यहां लोकतंत्र में विमर्श और जनता की भागीदारी के बजाय अभी प्रक्रिया आदि पर ही अधिक बल दिया जाता है। हमारे यहां चुनाव को एक उत्सव के रूप में देखा जाता है। किंतु चुनाव लोकतंत्र को स्थापित करने का साधन है, न कि साध्य। भारत में सामाजिक एवं आर्थिक असमानता के कारण चुनाव भी पूरी तरह से जनमत को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं।
भारतीय समाज के साथ ही वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था भी काफी हद तक जाति व्यवस्था पर आधारित हो गई है। इस व्यवस्था ने वंशानुगत आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति के बीच विभाजन को मान्यता प्रदान की है। साथ ही इसने योग्यताओं की उपेक्षा करते हुए निर्योग्यताओं एवं निषेधों का आरोपण भी किया है। जाति व्यवस्था के अनुक्रम में जिस जातिभेद का विकास हुआ, वह सामाजिक-न्याय की संकल्पना के सर्वथा विपरीत है। इसी जातिभेद एवं सांप्रदायिकता से उपजे असंतोष का लाभ उठाते हुए अंग्रेजों ने 'बाँटो और राज करो' की नीति के तहत, न सिर्फ स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर किया, बल्कि भारत को भी लंबे समय तक लूटते-खसोटते रहे। यही जातिभेद एवं जातीय आधार पर विभाजन स्वतंत्र भारत में राजनीति के जातीयकरण को स्थापित करता है।
प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत में जाति व्यवस्था से जुड़ी एक अन्य संकल्पना 'संस्कृतीकरण' की दिखाई देती है, जिसे भारतीय समाजशास्त्री श्रीनिवासन ने यह नाम दिया है। इस संकल्पना के अनुसार, अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत होने पर वर्ण व्यवस्था के निचले पायदान पर स्थित कोई जाति समूह अपना मूल स्थान छोड़कर अन्यत्र बस जाते हैं। कालांतर में वे उच्च जातियों के रीति-रिवाजों एवं प्रतिमानों को अपनाकर स्वयं को उच्च जाति के रूप में स्थापित करने का प्रयास करते हैं।
स्वतंत्रता के उपरांत संस्कृतीकरण की प्रक्रिया रुक जाती है। इसका कारण था, विभिन्न संस्थाओं एवं सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हेतु दी जाने वाली आरक्षण व्यवस्था। संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत राज्य ने सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग को सेवायोजन में आरक्षण का लाभ प्रदान किया है। इसके अलावा लोकसभा के 543 में से 84 सीटें अनुसूचित जाति तथा 47 सीटें अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित किया गया है जिसे प्रति 10 वर्ष बाद पुनः आगे बढ़ा दिया जाता है। निम्न जातियां एक तरफ आरक्षण व्यवस्था का लाभ भी उठाना चाहती थीं, तो दूसरी तरफ सामाजिक व्यवस्था में ऊपर भी उठना चाहती थी। किंतु आरक्षण लेने के क्रम में जातीय पहचान छिप नहीं पाती है। इसीलिए संस्कृतीकरण के द्वारा सामाजिक व्यवस्था में ऊपर उठना अब संभव नहीं रहा। दूसरी तरफ उच्च जातियां आरक्षण व्यवस्था से खुश नहीं थीं। इससे सामाजिक तनाव खुलकर सामने आने लगे। ये तनाव तब और बढ़ जाते हैं, जब मंडल आयोग की रिपोर्ट के तहत 1990 ई में प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण का लाभ प्रदान कर दिया जाता है।
स्वतंत्रता के बाद से प्रारंभ होने वाले औद्योगिक विकास ने जाति व्यवस्था की जड़ों को कमजोर किया है। किंतु राजनीति में विभिन्न जातियों के प्रभाव ने इसके और बुरे रूप जातिवाद को जन्म दिया है। टिकट बंटवारे से लेकर मतदान होने तक यह व्यवस्था अपनी प्रभावी भूमिका निभा रही है। विभिन्न जातियों के दबाव के कारण जातिवादी तत्वों को राजनीतिक फलक पर पर्याप्त स्थान मिलता रहा है, किंतु प्रमुख एवं संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दों पर विचार-विमर्श करने तथा उनका समाधान तलाश करने की कोशिश कमजोर पड़ गई है।
राजनीति में अपने स्थान को तलाश करते अगड़ों की जाति व्यवस्था के समानांतर संप्रदाय आधारित राजनीति ने सामाजिक ताने-बाने को और ज्यादा बिगाड़ दिया है। वर्तमान में सांप्रदायिक राजनीति के सामने खुद को कमजोर पा रहे राजनीतिक दलों ने अपने सामाजिक अभियांत्रिकी को मजबूत करने के लिए जातीय जनगणना के आंकड़ों का सहारा ले रहे हैं। यद्यपि इन आंकड़ों से कमजोर और पिछड़े वर्गों के लिए सरकार को कार्य हेतु योजनाएं शुरू करने में सुविधा तो अवश्य होगी। इससे राष्ट्र के भविष्य के मार्ग को दिशा एवं आकार मिलेगा। किंतु चूंकि प्रत्येक राजनेता एवं दल का पहला और सबसे बड़ा उद्देश्य तो खुद को सत्ता में लाना या फिर खुद की सत्ता को बनाए रखना होता है, इसलिए इस बात की पूरी संभावना रहेगी कि इसका राजनीतिक इस्तेमाल जातिभेद को बढ़ावा देगा और इससे राष्ट्रीय एकीकरण में बाधा आएगी। मंडल और कमंडल की इस लड़ाई में हाल के वर्षों में हुए प्रायः सभी चुनावों में चर्चा सबसे ज्यादा आम आदमी के मुद्दों की होती है, पर चुनाव के बाद इन पर कितना काम किया जाता है यह सभी को पता है। यद्यपि प्रभु जातियां तो इसका लाभ पा ही जाती हैं, किंतु इन लाभों से वंचित छोटे-छोटे जातिगत एवं धार्मिक समूहों में वंचना की भावना राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से ठीक नहीं है।
आधुनिक लोकतांत्रिक युग में जाति प्रथा जैसी परंपरागत रूढी के लिए कोई स्थान नहीं है। औद्योगीकरण के साथ ही जाति व्यवस्था की बेड़ियां कमजोर हुई है। वर्तमान युग में समस्त व्यवसाय सभी वर्णों के लिए सुलभ हैं। साथ ही कमजोर वर्णों के लिए राज्य उचित उपाय भी करता है। किंतु पूर्वकालीन जातिभेद तथा वर्तमान की जाति-केंद्रित राजनीति ने समाज में जातिवादी जहर घोलने का काम किया है।
ऐसा नहीं है कि जाति व्यवस्था सिर्फ भारत में ही विद्यमान है। प्राचीन मिस्र और रोमन साम्राज्य में भी वंशानुगत आधार पर कार्य विभाजन की व्यवस्था की गई थी। किंतु वहां न तो अस्पृश्यता की भावना थी, और न ही अंतरजातीय विवाह पर रोक था। औद्योगिक युग की शुरुआत के साथ ही वहां जाति व्यवस्था संबंधी यह रूढ़िवादिता भी समाप्त हो गई। किंतु भारत में ऐसा न हो सका, जिसे वर्तमान में तत्काल सुधारने की जरूरत है।
इसी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया गया है। इसके अलावा 'विशेष विवाह अधिनियम, 1954' के तहत अंतरजातीय तथा अंतरधार्मिक विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान की गई है। इसके अलावा समाज के शैक्षिक, सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए अनुच्छेद 15 एवं 16 के तहत आरक्षण की व्यवस्था प्रदान की गई है। किंतु आरक्षण व्यवस्था के अंतर्गत यहां विशेष कर इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि इसका लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे, न कि विकास के छोटे-छोटे टापू ही नजर आएं।
लोकतंत्र में सभी को समान माना गया है। इसमें कई बार व्यक्तिगत प्रतिभाओं की अवहेलना हो जाने से लोकतंत्र सर्वोत्तम का साधन न होकर औसत का साधन बन जाता है। लोकतंत्र अल्पमत का शासन है, क्योंकि इसमें चुनावों में पूरी जनता की भागीदारी नहीं होती है। इसमें सत्ता प्राप्त करने वाला दल सभी लोगों का मत प्राप्त नहीं करता है। लोकतंत्र सर्वसम्मति का शासन नहीं, बल्कि बहुमत का शासन और कभी-कभी यह बहुमत की तानाशाही में बदल जाता है। इसका कारण है, लोकतंत्र स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांतों में संबंध स्थापित नहीं कर पाता है।
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। मीडिया लोगों को सूचना ही नहीं देती है, बल्कि दृष्टिकोण का निर्माण भी करती है। किंतु उत्तर आधुनिक समाज में, अरुंधती राय के शब्दों में, "मीडिया ने मनुष्य का ध्यान उसके मूलभूत असंतोषों से हटाकर खबरों को उपभोक्ता सामग्री और मनुष्य को उपभोक्ता बना दिया है।" यह प्रवृति, लोक और इसे सुचारू रूप से संचालित करने के लिए बने तंत्र, दोनों के लिए अत्यंत घातक है।
महान विचारक मिल का कहना था, "लोकतंत्र को सामाजिक प्रगति का साधन बनाने हेतु निर्वाचक मंडल का शिक्षित होना अत्यंत आवश्यक है।" शिक्षित लोग ही अपने अधिकार एवं कर्तव्य के प्रति उच्च कोटि की चेतना रखते हैं। इसके अलावा केवल चुनाव में ही जनता की भागीदारी ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि चुनाव पूर्व एवं चुनाव उपरांत जनता की भागीदारी से निर्णय लेने वाली संस्थाएं लोगों की आवश्यकताओं और मांगों के प्रति संवेदनशील रहती हैं।
लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए सार्वजनिक संवाद भी अत्यंत आवश्यक है। यह नागरिकों को बातचीत में भागीदार बना कर सामाजिक चयन प्रक्रिया को प्रभावित करने का अवसर देता है। नेल्सन मंडेला ने अपनी आत्मकथा 'Long walk to freedom' में लिखा है, "प्रत्येक व्यक्ति कुछ कहना चाहता है। उसे कहने का अवसर मिले, यही लोकतंत्र का प्रखरतम रूप है।"
लोकतंत्र में सामान्यतः विभिन्न विचारों, सिद्धांतों, दलों एवं दृष्टिकोण के प्रति उदारता एवं सहिष्णुता आवश्यक है। इसमें बहुमत के बजाय सर्वसम्मति को वरीयता मिलनी चाहिए। डॉ भीमराव अंबेडकर के अनुसार, लोकतंत्र की सफलता हेतु विषमताओं का उन्मूलन, बहुदलीय प्रणाली, प्रभावशाली विपक्ष तथा अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों के अत्याचार की संभावना का न होना इसकी प्रारंभिक शर्त है।
लोकतंत्र की वास्तविक अर्थों में स्थापना हेतु चुनाव एक साधन है। किंतु इस चुनावी प्रक्रिया के दोष ने संपूर्ण शासन प्रणाली को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है। सर्वप्रथम यहां मतदान स्वैच्छिक के बजाय अनिवार्य करने की जरूरत है, जिससे अल्पमत का शासन समाप्त करके वास्तविक जनादेश के अनुसार सरकार को अपने कर्तव्यों के निर्वहन हेतु बाध्य किया जा सके। इसमें चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने की भी व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसी व्यवस्था मध्य प्रदेश के पंचायत चुनाव में लागू है। लोकतंत्र में सत्ता का स्रोत जनता है। अतः उसे अपने प्रतिनिधियों को यथोचित कार्य न करने पर भी 5 वर्ष का इंतजार कराना, कहीं से भी उचित नहीं है। यहां चुनाव में खर्चों पर नियंत्रण एवं निगरानी रखने की आवश्यकता है, और संभव हो तो इसे सरकारी खर्च पर भी संपन्न किया जाना चाहिए। मतदान लालच एवं भय से मुक्त वातावरण में होना चाहिए, जिसमें आदर्श आचार संहिता का सख्ती से पालन हो।
हाल के कुछ वर्षों में 'एक देश एक चुनाव' की व्यवस्था जोर पकड़ती दिखाई दे रही है। हालांकि इस मुद्दे पर मत भिन्नता की स्थिति है, क्योंकि कुछ राजनीतिक दल इसका समर्थन कर रही हैं जबकि ज्यादातर दल इसका विरोध कर रहे हैं। इसका समर्थन करने वाले दलों का कहना है कि इससे बार-बार होने वाले चुनावी खर्चे में कमी आएगी। साथ ही इससे न सिर्फ विकास की प्रक्रिया निर्बाध गति से आगे बढ़ती रहेगी बल्कि काले धन और भ्रष्टाचार पर भी अंकुश पाया जा सकता है। इस व्यवस्था का विरोध करने वाले दलों का कहना है कि यह व्यवस्था संवैधानिक प्रावधानों, संघवाद एवं संसाधनों की उपलब्धता की दृष्टि से प्रतिकूल है। इसके अलावा इनका यह भी कहना है की राष्ट्रीय मुद्दों का सहारा लेकर क्षेत्रीय मुद्दों की बलि देना, यह कहीं से भी स्वीकार्य नहीं है।
लोकतंत्र में चुनाव की बात करें, तो वस्तुत: यह मनुष्य और सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने का साधन मात्र है, साध्य तो व्यक्ति है। किंतु यह हमारी व्यवस्था का दोष है कि हमने साधन को ही साध्य मान लिया है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था अपने प्रारंभिक स्थिति में है, जो प्रक्रियामूलक है। हमें इसे विमर्शमूलक और इससे भी आगे ले जाकर इसे जनभागीदारीमूलक बनाना है। हालांकि जस्टिस जे एस वर्मा कमिटी की किशोर न्याय कानून संबंधी सिफारिशों के समय, जनलोकपाल बिल के लिए आंदोलन के समय तथा सोशल ऑडिट की व्यवस्था के रूप में यह अपने प्रारंभिक चरण से आगे जाती दिखाई दे रही है।
अन्य शासन प्रणालियों की तरह लोकतंत्र में भी खूबियों के साथ ही खामियां भी हैं। किंतु निर्वाचन प्रणाली के माध्यम से सत्ता का श्रोत जनता के हाथ में होने के कारण यह अन्य प्रणालियों की अपेक्षा श्रेष्ठ एवं कम दोषपूर्ण है। भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली को जाति व्यवस्था, जातिवाद एवं सांप्रदायिक राजनीति को समाप्त या कमजोर करके और भी ज्यादा सफल बनाया जा सकता है। यही कारण है कि अमर्त्य सेन जैसे विद्वान भी एक शासन प्रणाली के रूप में लोकतंत्र का समर्थन करते हुए कहते हैं, "लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्णय भले ही देर से लिए जाएं, किंतु वे स्थाई एवं दूरगामी प्रभाव के होते हैं।"
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Superb article
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