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जम्मू-कश्मीर : सभ्यता से संवाद तक | Jammu-Kashmir : Civilization to Dialogue
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Jammu-Kashmir05/07/2021 |
अगर फ़िरदौस बर-रू-ए ज़मीं अस्त
हमीं अस्त ओ हमीं अस्त ओ हमीं अस्त
महान सूफी संत अमीर खुसरो ने संभवत: कश्मीर की वादियों की खूबसूरती को देखकर ही यह कहा था, कि अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो वह यहीं है । किंतु आजादी के बाद घाटी क्षेत्र जब आतंकवाद और अलगाववादी की चपेट में आ जाता है, तो यहां से धारा 370 हटाने की आवाज बुलंद होने लगती है । 5 अगस्त 2019 को धारा 370 के हटने के बाद यह घाटी पुनः हिंसा के दौर से गुजरने लगती है । इस हिंसा के दौर को समाप्त करने के साथ ही संपूर्ण कश्मीर क्षेत्र में विकास की बयार बहाने के लिए केंद्रीय नेतृत्व द्वारा कश्मीर के नेताओं से संवाद स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है ।
कश्मीर का इतिहास प्राचीन काल
कश्मीर का इतिहास उतना ही पुराना है, जितनी पुरानी हमारी सभ्यता । कश्मीर का यह नाम कश्यप ऋषि के नाम पर पड़ा था । किंतु कश्मीर के बारे में पहला उल्लेख नवपाषाणकालीन इतिहास में मिलता है । यहां हम बुर्जहोम और गुफ्कराल जैसे स्थलों का नाम पाते हैं, जो अपने गर्तावास तथा विशेष पात्र परंपरा एवं संस्कृति के लिए प्रसिद्ध थे ।
प्राचीन काल में कश्मीर के बारे में वृहद जानकारी हमें कल्हण की ऐतिहासिक पुस्तक 'राजतरंगिणी' से मिलती है । इसमें 12वीं सदी तक कश्मीर पर शासन करने वाले कार्कोट, उत्पल तथा लोहार वंश के शासकों का नाम मिलता है, जिसमें ललितादित्य मुक्तापीड जैसे महान शासक भी शामिल हैं ।
कश्मीर का मध्यकालीन इतिहास
कश्मीर के हिंदू राजा सूहादेव के स्वात निवासी मंत्री शाहमीर ने 1339 में घाटी में इस्लामी शासन की स्थापना की थी । बाद में यहां सिकंदर नामक एक धर्मांध शासक सत्ता में आता है, जो अपने सुहाभट्ट नामक ब्राह्मण मंत्री, जिसने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था, के कहने पर घाटी के लोगों को इस्लाम धर्म स्वीकार करने अथवा घाटी छोड़ने पर विवश कर दिया । बाद में उसके पुत्र जैनुल आब्दीन ने इस नियम को हटाने के साथ ही हिंदू धर्म के लोगों को काफी रियायत दी तथा घाटी क्षेत्र में सुधार कार्यक्रमों को शुरू किया, जिस कारण उसे 'कश्मीर का अलाउद्दीन खिलजी' तथा 'कश्मीर का अकबर' भी कहा जाता है ।
1586 ईस्वी में मुगल बादशाह अकबर कश्मीर पर हमला करके उसे जीत लिया । किंतु उत्तर मुगल काल में कश्मीर पर कमजोर सत्ता को देखते हुए अफगानिस्तान के पठानों ने हमला करके इसे जीत लिया । इस कालखंड को कश्मीर के इतिहास में एक 'काले-युग' के रूप में उल्लिखित किया गया है ।
कश्मीर का आधुनिक कालीन इतिहास
बीसवीं सदी में कश्मीर का इतिहास पंजाब के राजा रणजीत सिंह से जुड़ जाता है, जिन्होंने 1819 में इसे जीत कर पंजाब राज्य में मिला लिया था । 1839 में रणजीत सिंह की मृत्यु हो जाती है । इसके बाद शुरू हुए प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध में सिख सेना की पराजय के बाद 1946 में लाहौर की संधि के तहत एक करोड़ रुपए के बदले कश्मीर राज्य को पंजाब से अलग करते हुए डोगरा सरदार गुलाब सिंह को दे दिया जाता है । इसके अलावा गिलगिट क्षेत्र पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया, जिसे आजादी के बाद अंग्रेज अधिकारियों ने पाकिस्तान को सौंप दिया था ।
कश्मीर का भारतीय स्वतंत्रता के बाद का इतिहास
1925 में गुलाब सिंह के सबसे बड़े पौत्र महाराजा हरि सिंह कश्मीर की गद्दी पर बैठते हैं । 15 अगस्त 1947 में भारत की आजादी के बाद विभिन्न रियासतों की तरह हरि सिंह भी कश्मीर को एक स्वतंत्र राज्य बनाए रखने का सपना देख रहे थे, जबकि बहुसंख्यक मुस्लिम जनसंख्या के आधार पर पाकिस्तान इसे अपने देश में मिलाना चाहता था । यद्यपि हरि सिंह ने पाकिस्तान के साथ तटस्थता समझौता किया था । किंतु पाकिस्तान ने इसका पालन न करते हुए 22 अक्टूबर 1947 को कश्मीर पर हमला कर दिया । हरि सिंह ने रक्षा की अपील की तथा 26 अक्टूबर 1947 को अधिमिलन-पत्र पर हस्ताक्षर करके कश्मीर को भारत के अंग के रूप में स्वीकार कर लिया । 01 जनवरी 1949 को भारत और पाकिस्तान ने युद्ध विराम समझौते को स्वीकार कर लिया तथा कश्मीर के भविष्य का फैसला जनमत संग्रह के आधार पर करने का निर्णय लिया ।
कश्मीर की संवैधानिक स्थिति
कश्मीर का भारत में विलय एक विशेष राज्य के दर्जे के तहत हुआ था । इसी के तहत 1949 में कश्मीर के लिए एक अलग संविधान सभा के गठन की घोषणा की जाती है । 1951 में यह संविधान सभा अपना कार्य शुरु करती है, जिसके तहत कश्मीर के लिए विशेष उपबंधों वाले एक पृथक संविधान का निर्माण किया जाता है । यह संविधान सभा 1956 में अंतिम रूप से कश्मीर के भारत में विलय की पुष्टि कर देती है । साथ ही संघ सरकार संविधान के भाग 21 में अनुच्छेद 370 तथा अनुच्छेद 35(a) के द्वारा एक 'अस्थाई, संक्रमणकालीन एवं विशेष उपबंध' के तहत जम्मू कश्मीर राज्य को अस्थाई रूप से विशेष स्थिति प्रदान करती है ।
पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर कब्जे का प्रयास
बीसवीं सदी के मध्य में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिलता है । नाभिकीय हथियारों के आविष्कार के बाद अब युद्ध के पारंपरिक तरीके के बजाय छद्म युद्ध की शुरुआत होती है । इसी के एक रूप का नाम आतंकवाद है । पाकिस्तान भी इसी रणनीति के तहत कश्मीर पर कब्जा करने का प्रयास करता है और वह इस दौर में 'ऑपरेशन जिब्राल्टर' तथा 'ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम' शुरू करता है, जो असफल सिद्ध होते हैं ।
1989 में अफगानिस्तान से रूस की वापसी के बाद पाकिस्तान में बहुत तेजी से आतंकी शिविरों एवं वहां आतंकवादियों को प्रशिक्षित करने का कार्यक्रम शुरू होता है । इसका प्रभाव भारत पर भी पड़ता है । यहीं से अब पाकिस्तान 'बीयर ट्रैप' नीति के तहत भारत के कश्मीर राज्य में प्रॉक्सी वार छेड़ देता है । यही वह दौर है, जब कश्मीर में बहुत तेजी से आतंकवादी गतिविधियों में बढ़ोतरी देखी गई । इसके बाद घाटी क्षेत्र से 3 लाख से भी ज्यादा हिंदू परिवारों का कश्मीर घाटी से भारत के विभिन्न शहरों में विस्थापन होता है । अलगाववाद और आतंकवाद के इस दौर में कश्मीर में कई सरकारों का गठन एवं पतन होता है । यही कारण है, कि इस दौर में अनुच्छेद 370 एवं 35(a) को हटाने के लिए पूरे भारत में आवाज उठने लगती है ।
बीजेपी और पीडीपी की गठबंधन सरकार
2014 की कश्मीर राज्य के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी तथा पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी जैसी अलग विचारधारा वाली पार्टियां एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में कश्मीर में सरकार का गठन करती हैं । किंतु मुफ्ती मोहम्मद सईद की मृत्यु के बाद उनकी पुत्री महबूबा मुफ्ती सत्ता में आती हैं, जो राज्य में अलगाववादी विचारधारा को प्रश्रय देने लगती हैं । इससे दोनों दलों में तनातनी तब शुरू हो जाती है, और अफस्पा कानून तथा कश्मीर में सैन्य तैनाती को लेकर यह तनाव और बढ़ जाता है । आतंकवादी बुरहान वानी की मृत्यु के बाद कश्मीर क्षेत्र शांत हो जाता है । ऐसे में केंद्र की मंशा थी की महबूबा मुफ्ती राज्य में सख्ती बढाएं और अलगाववादियों को रोकें, जबकि मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती इसके विपरीत कार्य करती हैं ।
इन्हीं परिस्थितियों में कश्मीर के विशेष दर्जे की समाप्ति की पृष्ठभूमि तैयार होती है । 2018 में भारतीय जनता पार्टी द्वारा महबूबा मुफ्ती सरकार से समर्थन वापस ले लिया जाता है, और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाता है । इस दौर में केंद्र द्वारा हुरिर्यत कॉन्फ्रेंस को महत्वहीन बनाने के साथ ही राज्य में व्यापक सुरक्षात्मक प्रबंध किए जाते हैं । इनका उद्देश्य था, राज्य के विशेष दर्जे की समाप्ति तथा राज्य के विभाजन के बाद पैदा होने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना ।
अनुच्छेद 370 और 35(a) की समाप्ति
1957 में ही कश्मीर की संविधान सभा विघटित हो गई थी । इससे राष्ट्रपति पर लगाई गई बाध्यता भी समाप्त हो गई थी । अब राष्ट्रपति मात्र लोक अधिसूचना के माध्यम से ही अनुच्छेद 370 तथा अनुच्छेद 35(a) को समाप्त कर सकता था । इसी के तहत 5 अगस्त एनडीए सरकार द्वारा 'जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019' के माध्यम से अनुच्छेद 370 के कई उपबंधों के अलावा अनुच्छेद 35(a) को समाप्त करके जम्मू कश्मीर राज्य को विभाजित करके जम्मू कश्मीर तथा लद्दाख नामक दो केंद्रशासित प्रदेशों की स्थापना की जाती है । 31 अक्टूबर 2019 को जम्मू कश्मीर एवं लद्दाख के रूप में 2 केंद्रशासित प्रदेश अस्तित्व में आ जाते हैं ।
राज्य में हुए इस व्यापक परिवर्तन के बाद वहां हिंसा का एक नया दौर शुरू हो जाता है । किंतु इसकी पूरी तैयारी करने के कारण अलगाववादियों को निराशा हाथ लगती है । ऐसे में बिखरते जनाधार तथा एक लंबे कारावास के बाद आजाद हुए कश्मीर के स्थानीय राजनीतिक दलों के नेताओं ने केंद्र सरकार से वार्ता करना ही उचित समझा । हाल ही में कश्मीर को लेकर के केंद्र सरकार तथा जम्मू कश्मीर राज्य के 8 राजनीतिक दलों के 14 प्रतिनिधियों के मध्य हुआ संवाद इसी की तरफ इशारा करता है ।
गुपकार
श्रीनगर में एक गुपकार रोड है । यहाँ नेशनल कांफ्रेंस के नेता तथा जम्मू एवं कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला का निवास है । महबूबा मुफ्ती सरकार के पतन के बाद कश्मीर में होने वाले व्यापक परिवर्तन के कारण आशंकित होकर 4 अगस्त 2019 को 8 स्थानीय दलों के नेताओं ने एक बैठक करके जम्मू कश्मीर की स्वायत्तता और विशेष दर्जे के लिए एकजुटता प्रकट की थी । किंतु अंत में वही होता है जिस बात का उन्हें डर था, अर्थात विशेष दर्जे की समाप्ति के साथ ही राज्य का विभाजन ।
गुपकार 2.0
22 अगस्त 2020 को फारुख अब्दुल्ला के नेतृत्व में कश्मीर के स्थानीय दलों की बैठक में 'गुपकार घोषणा' की जाती है । इसके तहत इन दलों ने कश्मीर में अनुच्छेद 370 एवं अनुच्छेद 35(a) की बहाली के साथ ही कश्मीर के राज्य के दर्जे की बहाली के विचार पर एकजुटता प्रकट की है । उन्होंने कश्मीर के हुए विभाजन को भी स्वीकार करने से इनकार कर दिया है ।
जम्मू-कश्मीर संवाद : कारण
पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई ने कश्मीर के लिए 'कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत' की वकालत की थी । इसी के तहत मोदी सरकार ने स्थानीय एवं अंतरराष्ट्रीय दबाव के बीच कश्मीर की समावेशी संस्कृति की रक्षा, मानवता की रक्षा तथा लोकतंत्र की स्थापना हेतु वार्ता को अपनी स्वीकृति प्रदान की है । कुछ अन्य कारणों के रूप में देखें, तो आतंकवाद के कारण आर्थिक दुर्दशा झेल रहे कश्मीरियों का समुचित विकास भी एक प्रमुख वजह है । इसके अलावा अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद चीन एवं पाकिस्तान द्वारा पैदा की जाने वाली सुरक्षा चुनौतियां भी अन्य वजहों में शामिल हैं । एक अन्य कारण यह भी बताया जाता है कि स्थानीय लोगों में केंद्र सरकार के प्रति अब भी अविश्वास की स्थिति बनी हुई है, जबकि अलगाववादी एवं आतंकवादी बड़ी आसानी से स्थानीय लोगों का दिल जीतने में सफल रहे हैं, और इसका इस्तेमाल वे सत्ता प्रतिष्ठानों के खिलाफ करते रहते हैं ।
संवाद का परिणाम
कश्मीर पर संवाद हेतु प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के बुलाने पर राज्य के 8 प्रमुख दलों (बीजेपी, कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, पैंथर्स पार्टी, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, माकपा, जम्मू कश्मीर अपनी पार्टी) के 14 लोगों ने भागीदारी की थी । 24 जून 2021 को हुई इस बैठक में अलगाववादी हुर्रियत कांफ्रेंस को आमंत्रित नहीं किया गया था । इस बैठक की सबसे प्रमुख बात यह थी कि अनुच्छेद 370 तथा 35(a) के मसले को न्यायिक निर्णय हेतु सभी दलों ने छोड़ दिया है । कश्मीर के सभी आमंत्रित दलों ने मुख्यतः राज्य में लोकतंत्र की बहाली हेतु चुनाव कराने तथा कश्मीर को राज्य का दर्जा देने पर बल दिया है । इस संबंध में केंद्र सरकार का कहना है, कि कश्मीर में चुनाव परिसीमन के बाद ही होगा । केंद्र सरकार ने कश्मीर को राज्य का दर्जा देने के संबंध में कोई आश्वासन नहीं दिया है ।
जम्मू कश्मीर में परिसीमन
पहले जम्मू कश्मीर विधानसभा में 111 सीटें थी । इसमें 24 सीटें यह सोच कर पाक अधिकृत कश्मीर के लिए आरक्षित रखी गई थीं, कि कभी न कभी इन क्षेत्रों का भारत में विलय अवश्य होगा । शेष 87 सीटें जम्मू कश्मीर राज्य के लिए थीं । चूँकि लद्दाख (4 सीटें) अब एक अलग केंद्रशासित प्रदेश के रूप में स्थापित हो गया है । इसलिए अब जम्मू कश्मीर राज्य में 107 सीटें ही बची हैं ।
परिसीमन के बाद जम्मू कश्मीर में 7 विधानसभा सीटों का विस्तार होगा । 24 पाक अधिकृत कश्मीर की सीटों को छोड़ दिया जाए, तो चुनाव मात्र 90 सीटों पर होंगे । लद्दाख के अलग होने के बाद जम्मू क्षेत्र में 37 सीटें हैं, जबकि कश्मीर क्षेत्र में 46 सीटें हैं । चूँकि जम्मू क्षेत्र आकार एवं जनसंख्या की दृष्टि से बड़ा है, इसलिए परिसीमन के बाद 7 अतिरिक्त सीटों का लाभ जम्मू क्षेत्र को ही मिलेगा । यही कारण है कि केंद्र सरकार परिसीमन के बाद कश्मीर और जम्मू क्षेत्र में संतुलन स्थापित होने के बाद ही चुनावों पर बल दे रही है ।
उपसंहार
जम्मू कश्मीर संवाद की सबसे महत्वपूर्ण बात किया है, कि चीन से हाथ मिलाने की बात करने वाले फारूख अब्दुल्ला तथा घाटी में तिरंगा उठाने वाला एक भी हाथ ना रहेगा की घोषणा करने वाली महबूबा मुफ्ती भी इस संवाद सभा में उपस्थित हुए । सभी दलों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही इस मुद्दे के समाधान पर बल दिया है । यद्यपि संवाद के बाद उमर अब्दुल्ला तथा महबूबा मुफ्ती के अलगाववादी सुर पुनः प्रारंभ हो गए हैं । किंतु यह उनकी बेबसी की ओर इशारा करता है कि सत्ता की दरकती जमीन को पुनः पाने के लिए वह ऐसे अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं । ऐसे में केंद्र सरकार की जिम्मेदारी बनती है, कि वह कश्मीर को आतंकवाद के अलावा समस्त सुरक्षा चुनौतियों से मुक्त करके उसे विकास के मार्ग पर इस प्रकार प्रशस्त करे, कि अमीर खुसरो की पंक्तियाँ पुनः सार्थक हो जाएं, कि धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो वह यहीं है ।
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