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केंद्रीय विधान मंडल - 25/07/2021

STUDY NOVELTY

By: Ambuj Kumar Singh



          हमारी संसद : अनु. 79-123









भारत में संसदीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को अपनाया गया है। संविधान के अनु. 79 के अनुसार भारतीय संघ के लिए एक संसद होगी, जो राष्ट्रपति तथा राज्यसभा एवं लोकसभा से मिलकर बनेगी। इस प्रकार संसद के तीन अंग हैं, और यह संसद द्विसदनात्मक है।

राज्यसभा
राज्यसभा (उच्च सदन) एक स्थायी सदन है, जिसका विघटन नहीं होता है। इसके एक तिहाई सदस्य 2 वर्षों की समाप्ति पर सेवानिवृत्त हो जाते हैं। प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 6 वर्ष होता है, और वह दोबारा निर्वाचन का पात्र होता है।

राज्यसभा में निर्वाचन हेतु योग्यता
- भारत का नागरिक हो, तथा
- आयु कम से कम 30 वर्ष हो।

राज्यसभा का चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति का नाम विधानसभा के 10 सदस्यों द्वारा प्रस्तावित किया जाना चाहिए। राज्यसभा में राज्यों के प्रतिनिधियों का निर्वाचन उस राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाएगा अनु. 80(4)। संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि ऐसी रीति से चुने जाएंगे, जो सांसद विधि द्वारा विहित करे अनु. 80(5)। उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होगा अनु. 64 & 89(1)। 
राज्यसभा अपने किसी सदस्य को उपसभापति चुनेगी अनु. 89(2)। 

अनु. 80 : राज्यसभा की संरचना
राज्य सभा की अधिकतम सदस्य संख्या 250 है। इसमें 238 सदस्य राज्य एवं संघ राज्य क्षेत्रों से निर्वाचित होते हैं, और इनके स्थानों का आवंटन चौथी अनुसूची में निर्मित उपबंधों के अनुसार होता है। साहित्य, विज्ञान, कला एवं समाज सेवा में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखने वाले 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं अनु. 80(3)। वर्तमान में राज्यसभा की कुल सदस्य संख्या 245 है।

लोकसभा
लोकसभा जनता द्वारा मतदान के माध्यम से निर्वाचित प्रतिनिधियों का सदन (निम्न सदन) है, जिसमें जनता वयस्क मताधिकार पर प्रतिनिधियों का चयन करती है। लोकसभा में निर्वाचन के लिए किसी भी व्यक्ति का -
- भारत का नागरिक होना, तथा
- उसकी आयु 25 वर्ष होना आवश्यक है।

अनु. 81 : लोकसभा की संरचना
लोक सभा में राज्यों से निर्वाचित प्रतिनिधियों की अधिकतम संख्या 530 होगी तथा संघ शासित क्षेत्रों से निर्वाचित प्रतिनिधियों की अधिकतम संख्या 20 होगी। 84वें एवं 87वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा यह निश्चित किया गया है कि 2026 के पश्चात की गई जनगणना के आंकड़े प्रकाशित होने तक राज्यों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व 1971 की जनगणना के आधार पर तथा राज्य के भीतर प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों का पुन: समायोजन 2001 की जनगणना के आधार पर होगा। 

अनु. 330 के अनुसार, लोकसभा में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए स्थानों का आरक्षण संबंधित राज्य में उनकी जनसंख्या के अनुपात में निर्धारित किया जाएगा। प्रारंभ में यह व्यवस्था 10 वर्ष के लिए थी, जिसे विभिन्न संविधान संशोधन द्वारा हर बार 10 वर्ष के लिए आगे बढ़ा दिया गया है। अनु. 331 के अनुसार, लोकसभा में उचित प्रतिनिधित्व न होने पर राष्ट्रपति आंग्ल-भारतीय समुदाय के 2 प्रतिनिधियों को मनोनीत कर सकता है। इस प्रकार लोक सभा की अधिकतम सदस्य संख्या 552 हो सकती है। वर्तमान में यह 545 है।

अनु. 83 के अनुसार, लोकसभा के सदस्यों का कार्यकाल उनकी प्रथम बैठक की तिथि से 5 वर्षों तक होता है। आपातकाल के दौरान इस अवधि को एक बार में 1 साल तक बढ़ाया जा सकता है। आपातकाल की उद्घोषणा लागू न रहने पर लोकसभा की अवधि का विस्तार 6 माह बाद स्वत: ही समाप्त हो जाएगा।

संसद सदस्यों की अर्हता एवं निरर्हता
अनु. 84 के अनुसार, कोई भी व्यक्ति संसद सदस्य बनने की योग्यता तभी होगा, जब वह :
- भारत का नागरिक हो;
- निर्वाचन आयोग द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची के अनुसार शपथ या प्रतिज्ञान सहित हस्ताक्षर करे;
- राज्यसभा के लिए 30 वर्ष एवं लोकसभा के लिए 25 वर्ष की आयु हो;
- संसद द्वारा निर्धारित अन्य योग्यताएं धारण करे।

अनु. 101 एवं 102 के अनुसार, कोई व्यक्ति संसद के किसी भी सदन का सदस्य चुने जाने के लिए अयोग्य होगा, यदि वह :
- भारत का नागरिक न हो किसी अन्य देश के प्रति निष्ठा या नागरिकता प्राप्त करे;
- लाभ का पद धारण करे;
- सक्षम न्यायालय द्वारा घोषित विकृतचित्त (पागल) हो;
- अनुन्मोचित दिवालिया हो;
- 10वीं अनुसूची के अनुसार दल-बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित किया गया हो;
- किसी अपराध के लिए 2 वर्ष से अधिक कैद की सजा पाया हो।

अनु. 103 के अनुसार, संसद के किसी भी सदस्य की निर्योग्यता का निर्णय निर्वाचन आयोग की सलाह पर राष्ट्रपति करेगा और उसका विनिश्चय अंतिम होगा। दल-बदल के आधार पर होने वाली निर्योग्यता का निर्धारण लोकसभा का अध्यक्ष एवं राज्यसभा का सभापति करता है, और उसका विनिश्चय अंतिम माना जाएगा।

यदि राज्य विधान मंडल का सदस्य संसद का सदस्य भी बन जाता है, तो उसे राज्य विधानमंडल की सदस्यता से त्यागपत्र देना होगा, अन्यथा संसद सदस्य के रूप में उसका स्थान रिक्त माना जाएगा। कोई भी संसद सदस्य लगातार 60 दिनों तक बिना आज्ञा के संसद के अधिवेशन से अनुपस्थित रहता है, तो सदन उसके स्थान को रिक्त घोषित कर सकता है। किंतु सत्रावसान अथवा लगातार 4 दिन से अधिक समय तक सदन के स्थगित रहने को इन 60 दिनों की अवधि के अंतर्गत नहीं जोड़ा जाएगा।

संसदीय अधिकारी
उपराष्ट्रपति (राज्यसभा का सदस्य न होने के बावजूद) राज्यसभा का पदेन सभापति (अनु. 89(1) होता है। मत विभाजन की स्थिति के अलावा राज्यसभा का सभापति मत नहीं देता है। राज्यसभा अपने सदस्यों के बीच से ही एक उपसभापति भी चुनती है (अनु. 89(2)। सभापति उपसभापति को और उपसभापति सभापति को संबोधित हस्ताक्षरित लेख द्वारा पद त्याग सकता है। सभापति अर्थात उपराष्ट्रपति को 14 दिनों की पूर्व सूचना के बाद  राज्यसभा के विशेष बहुमत तथा लोकसभा के साधारण बहुमत से हटाया जा सकता है (अनु. 67), जबकि उपसभापति को 14 दिन की पूर्व सूचना के बाद राज्यसभा के सदस्यों के बहुमत से हटाया जा सकता है (अनु. 90)। राज्यसभा की सभापति या उपसभापति को पद से हटाए जाने का संकल्प विचाराधीन होने की स्थिति में वे पीठासीन नहीं होंगे और मतदान नहीं करेंगे (अनु. 92)।

लोकसभा, यथाशक्य शीघ्र अपने दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी (अनु. 93)। अध्यक्ष उपाध्यक्ष को और उपाध्यक्ष अध्यक्ष को संबोधित हस्ताक्षरित लेख द्वारा पद त्याग सकता है। 14 दिनों की पूर्व सूचना के बाद लोकसभा के समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष को पद से हटाया जा सकता है (अनु. 94)। अध्यक्ष के न होने पर उपाध्यक्ष, और उपाध्यक्ष के भी न होने पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त व्यक्ति उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा (अनु. 95)। 

प्रत्येक लोकसभा चुनाव के उपरांत राष्ट्रपति लोकसभा के किसी वरिष्ठ सदस्य को प्रोटेम स्पीकर, अर्थात अस्थायी अध्यक्ष नियुक्त करता है, जो सदन के समस्त सदस्यों द्वारा शपथ लेने एवं नए अध्यक्ष का चुनाव होने तक लोक सभा की अध्यक्षता करता है। अनु. 96 के अनुसार, जब अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष को पद से हटाने का संकल्प विचाराधीन हो, तब वे पीठासीन नहीं होंगे, तथा ऐसे संकल्प के विरुद्ध उन्हें प्रथमत: ही मत देने का अधिकार होगा, किंतु मत बराबर होने की दिशा में वे मतदान नहीं कर सकेंगे।

लोकसभा अध्यक्ष की शक्तियां
- सदन के बैठकों की अध्यक्षता करना;
- संसद की कार्रवाई का संचालन करना;
- सदन में सदस्यों से मर्यादाओं का पालन कराना;
- किसी कारणवश बैठक स्थगित करना;
- गणपूर्ति के अभाव में बैठक निलंबित करना;
- संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता करना;
- निर्णायक मत देने का अधिकार;
- संसद की समस्त समितियों पर नियंत्रण रखना;
- समस्त कार्रवाइयों की सूचना राष्ट्रपति को देना; तथा
- दल-बदल संबंधी मामलों में सदन के सदस्यों की निर्योग्यता का अंतिम रूप से निर्धारण करना।


संसद : अधिवेशन एवं गणपूर्ति
राष्ट्रपति संसद के प्रत्येक सदन के सत्र को आहूत एवं सत्र का अवसान तथा लोकसभा का विघटन कर सकेगा (अनु. 85)। राष्ट्रपति को सदनों में अभिभाषण का एवं उनको संदेश देने का अधिकार प्राप्त है (अनु. 86)। वह प्रत्येक चुनाव के बाद प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र के आरंभ में एक साथ समवेत संसद के दोनों सदनों में अभिभाषण करेगा और संसद को उसके आह्वान के कारण बताएगा (अनु. 87)।

प्रत्येक वर्ष संसद के सामान्य रूप से तीन अधिवेशन बुलाए जाते हैं -
- बजट सत्र (फरवरी से मई माह तक)
- वर्षाकालीन सत्र (जुलाई से सितंबर माह तक)
- शीतकालीन सत्र (नवंबर से दिसंबर माह तक)

अनु. 100(3) के अनुसार, जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे, तब तक संसद के प्रत्येक सदन का अधिवेशन गठित करने के लिए गणपूर्ति सदन के सदस्यों की कुल संख्या का 10वाँ भाग होगी। गणपति हेतु लोकसभा में 55 तथा राज्यसभा में 25 सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य है।

संसदीय विशेषाधिकार
संविधान के अनु. 105 के तहत संसद सदस्यों तथा अनु. 194 के तहत राज्य विधान मंडल के सदस्यों को अपने कर्तव्यों के सुचारू रूप से निर्वाहन हेतु कुछ विशेषाधिकार प्रदान किए गए हैं, जिन्हें व्यक्तिगत एवं सामूहिक विशेष अधिकारों में वर्गीकृत किया गया है :

व्यक्तिगत विशेषाधिकार
1. किसी सदस्य को सदन की शुरुआत के 40 दिन पूर्व, सदन के सत्र के दौरान तथा सदन स्थगित होने के 40 दिन पश्चात दीवानी (सिविल) मामलों में गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। किंतु यह संरक्षण आपराधिक अथवा निवारक निरोध मामलों में नहीं प्राप्त है।
2. सदन या उसकी किसी समिति ने कही गई किसी बात के लिए किसी सदस्य को न्यायालय में उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा। किंतु अनु. 121 के अंतर्गत, सदस्यों द्वारा सर्वोच्च या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के आचरण के संबंध में तभी चर्चा की जाएगी, जब उसे हटाने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया हो।
3. सदन की अनुमति के बिना किसी भी सदस्य को सदन की कार्रवाई के दौरान किसी भी न्यायालय में साक्षी होने के लिए नहीं बुलाया जाएगा।

सामूहिक विशेषाधिकार
- सदन की कार्रवाई विनियमित करने संबंधी अधिकार।
- सदन की कार्रवाई को प्रकाशित करने या न करने संबंधी अधिकार।
- सदन के सत्र के दौरान अवमानना अथवा विशेषाधिकार हनन के लिए सदस्यों या बाहरी व्यक्तियों को दंड देने का अधिकार।
- विशेष परिस्थिति में गुप्त सदन चलाने का अधिकार।

विधायी प्रक्रिया
विधेयक एक प्रस्ताव होता है, जो दोनों सदनों से पारित होने के बाद राष्ट्रपति की अनुमति मिलने के साथ ही अधिनियम का रूप ले लेता है। धन विधेयक एवं संविधान संशोधन विधेयक के अलावा अन्य सभी विधेयकों को साधारण विधेयक कहते हैं। इसे सदन में प्रस्तुत किए जाने पर तीन वाचन का प्रावधान है। प्रथम वाचन में अध्यक्ष या सभापति की अनुमति मिलने के बाद सदन में विधेयक प्रस्तुत किया जाता है, जिस पर विस्तृत वाद-विवाद नहीं होता और सरकारी गजट में प्रकाशित कर दिया जाता है। द्वितीय वाचन में विधेयक पर सदन में तत्काल विचार किया जाता है, प्रवर समिति को भेजा जाता है, अथवा जनमत जानने हेतु विधेयक को प्रकाशित किया जाता है। इस चरण में विधेयक पर विस्तृत बहस होती है, और सदन इसमें किसी संशोधन को स्वीकृति भी दे सकता है। तृतीय वाचन में विधेयक को अंतिम रूप से सदन की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाता है। मतदान के बाद सदन के बहुमत से पारित विधेयक को अध्यक्ष पारित होने की घोषणा के साथ इसे दूसरे सदन में भेज देता है।
दूसरे सदन में भी यही प्रक्रिया अपनायी जाती है। यदि वह इस विधेयक पर अपनी स्वीकृति न दे, या संशोधन प्रस्तुत करे, जो प्रथम सदन को स्वीकार्य न हो, या 6 माह तक विधेयक रोक ले, तो राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुला सकता है। संयुक्त बैठक की अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करता है। उसकी अनुपस्थिति में लोकसभा का उपाध्यक्ष, और यदि वह भी उपस्थित नहीं है, तो राज्यसभा का उपसभापति संयुक्त बैठक की अध्यक्षता करता है।
दोनों सदनों से पारित विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। अनु. 111 के अनुसार, इस विधेयक को राष्ट्रपति अपनी अनुमति देता है, अनुमति रोक लेता है, या पुनर्विचार के लिए दोनों सदनों को वापस भेज देता है। 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के अनुसार, पुनर्विचार के बाद वापस आए विधेयक पर राष्ट्रपति अनुमति देने के लिए बाध्य है। इस प्रकार राष्ट्रपति की अनुमति के साथ ही वह विधेयक अधिनियम का रूप ले लेता है।

साधारण विधेयक संसद के किसी भी सदन में लाया जा सकता है। इसके लिए राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति जरूरी नहीं है। इस विधेयक के मामले में दोनों सदनों को समान अधिकार प्राप्त है। किंतु दोनों सदनों में टकराव की स्थिति में संयुक्त बैठक का प्रावधान है। राष्ट्रपति इसे पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है।

धन विधेयक (अनु. 110) पहले लोकसभा में ही लाया जाता है। इसे प्रस्तुत करने से पूर्व राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक है। इसे राज्यसभा सिर्फ 14 दिनों के लिए रोक सकती है। इस विधेयक में दोनों सदनों में टकराव की स्थिति में संयुक्त बैठक का प्रावधान नहीं है। राष्ट्रपति इसे पुनर्विचार हेतु नहीं भेज सकता है, और अपनी स्वीकृति देने के लिए विवश है।

प्रत्येक धन विधेयक वित्त विधेयक होता है, किंतु प्रत्येक वित्त विधेयक धन विधेयक नहीं होता है, क्योंकि इसमें अनु. 110 में वर्णित धन विधेयक के विषयों के अलावा अन्य विषय भी शामिल हैं। इसे भी धन विधेयक की तरह पहले राज्यसभा में नहीं लाया जा सकता है। अन्य मामलों में वित्त विधेयक धन विधेयक की तरह व्यवहार करता है।

अनु. 112 में वार्षिक वित्तीय विवरण, अर्थात बजट का उल्लेख मिलता है।

अनु. 112(3) के अनुसार भारत की संचित निधि पर भारित व्यय :
- राष्ट्रपति के वेतन-भत्ते एवं पद से संबंधित अन्य व्यय;
- राज्यसभा के सभापति एवं उपसभापति तथा लोकसभा के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष के वेतन-भत्ते;
- भारत सरकार पर भारित ऋण भार;
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन-भत्ते एवं पेंशन;
- उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की पेंशन;
- किसी न्यायालय या माध्यस्थम् अधिकरण के निर्णय, डिक्री या पंचाट की तुष्टि के लिए अपेक्षित राशियाँ;
- भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक के वेतन-भत्ते एवं पेंशन;
- कोई अन्य व्यय जो इस संविधान द्वारा या संसद द्वारा विधि द्वारा इस प्रकार भारित घोषित किया जाता है।



















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