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उदारीकरण की आड़ में चीनी विस्तारवाद | Chinese Expansionism under the guise of Liberalization

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By: Ambuj Kumar Singh

उदारीकरण की आड़ में चीनी विस्तारवाद | Chinese Expansionism under the guise of Liberalization

Chinese Expansionism under the guise of Liberalization

17/06/2021



प्राचीन काल में प्रख्यात चीनी सैन्य विचारक सुन त्ज़ू ने अपनी पुस्तक 'आर्ट ऑफ वार' में चीनियों को एक ऐसे युद्ध का पाठ पढ़ाया था, जिसमें शत्रु से लड़े बिना ही विजय प्राप्त की जा सके । धोखे पर आधारित इस रणनीति को आधुनिक काल में माओ के नेतृत्व में अमली जामा पहनाया जाता है । वर्तमान में धोखे और चकमा देने पर आधारित यह लड़ाई जैविक-युद्ध की संभावना के रूप में दिखाई दे रही है, जो शुरू होने पर तृतीय विश्व-युद्ध को जन्म दे सकती है ।


राज्य को महत्व देने वाली 'कन्फ्यूशियस विचारधारा' के प्रभाव में चीनियों का शुरू से ही यह विश्वास रहा है, कि उनकी संस्कृति ही सबसे अच्छी है । वे शेष विश्व को बर्बर और असभ्य मानते रहे हैं । इसलिए उन्होंने अन्य देशों को कभी भी बराबरी का दर्जा नहीं दिया । साथ ही, जमीन की भूख के कारण उन्होंने सैन्य-शक्ति के बल पर पड़ोसियों से लगातार लड़ाइयां लड़ींं और उनके क्षेत्रों पर कब्जा भी किया है । 


किंतु 19वीं सदी में सामंतवादी चीन पश्चिमी की पूंजीवादी शक्तियों से पराजित होकर उनका अर्धउपनिवेश बन गया । पश्चिमी देशों ने चीनी तरबूज का खूब दोहन किया, जिससे चीन में 'छिंग वंश' का शासन अलोकप्रिय हो गया । ऐसे में 1911 में सन यात-सेन (चीन के गांधी) के नेतृत्व में चीन में पहली सफल क्रांति के बाद वहाँ राजशाही की समाप्ति एवं गणराज्य की स्थापना होती है । किंतु 1925 में सन यात-सेन की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी च्यांग काई शेक की जनविरोधी नीतियों के कारण वह और उसकी पार्टी 'कोमिनतांग' अलोकप्रिय होकर चीन में हुए संघर्ष में सत्ता से बेदखल कर दिए जाते हैं । इस प्रकार 1949 में गोरिल्ला सेना की मदद से माओ त्से तुंग के नेतृत्व में चीन में विश्व की दूसरी साम्यवादी सरकार का गठन होता है ।


माओ त्से तुंग के अनुसार, गुरिल्ला युद्ध की त्रिस्तरीय रणनीति होती है । इसमें प्रथम चरण में प्रचार पर बल दिया जाता है, तथा खुद को मजबूत करने का प्रयास किया जाता है । दूसरे चरण में शत्रु के सैन्य ठिकानों एवं प्रमुख संस्थानों पर हमला करके शत्रु को कमजोर करने का प्रयास किया जाता है । तीसरे चरण में शत्रु से मजबूत स्थिति प्राप्त कर लेने के बाद नियमित सेना की मदद से पारंपरिक युद्ध में शत्रु को पराजित करके साम्यवादी सत्ता की स्थापना की जाती है । इसमें विभिन्न चरणों को अपनी आवश्यकतानुसार परिवर्तित किया जा सकता है, और चीन 1949 से ही लगातार इस प्रक्रिया में प्रयत्नशील है ।


चीन की 14 देशों से सीमा मिलती है, किंतु उसका 23-24 देशों से सीमा-संबंधी विवाद चल रहा है । ऐसी स्थिति में वह प्रचार की रणनीति से उस क्षेत्र पर अपने कब्जे की लगातार कोशिश करता रहा है और इसके लिए वह झूठे साक्ष्यों का भी सहारा लिया है । इसी रणनीति के तहत उसने तिब्बत पर अधिकार किया है, और उत्तर एवं पूर्वोत्तर भारत पर अपना दावा प्रस्तुत करता है । इस रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा यह भी है, कि अपने प्रबल प्रतिद्वंदी को  हर मोर्चे पर कमजोर और पराजित किया जाए । इसी के तहत तिब्बत मसले एवं सीमा विवाद के अलावा एशिया एवं अफ्रीका के नव स्वतंत्र देशों के नेतृत्व के प्रश्न पर चीन ने 1962 में भारत को पराजित करके  दुनिया को यह.दिखाने का प्रयास किया, कि चीन ही उन्हें उचित नेतृत्व प्रदान कर सकता है । इसी क्रम में वह भारत को दक्षिण एशिया में ही उलझाए रखने के लिए पाकिस्तान का सहारा भी लेता रहता है ।


इस रणनीति के दूसरे चरण में शत्रु को धोखा देकर कमजोर एवं पराजित करने तथा स्वयं को मजबूत करने पर बल दिया जाता है । चीन भी एक तरफ 'चीनी-हिंदी भाई भाई' का नारा देकर 1962 में हम पर युद्ध थोप दिया, तो दूसरी तरफ प्रतिस्पर्धी देशों के साथ ही पश्चिमी देशों से भी आगे निकलने के लिए वह कम्यून पद्धति पर आधारित सामूहिक कृषि की 'ग्रेट लीप फॉरवर्ड' की नीति अपनाता है । किंतु उसे इसमें सफलता नहीं मिलती है, और लगभग तीन करोड़ लोगों को जान गंवाना पड़ता है ।


वस्तुतः चीन का विकास 1978 में डेंग शियाओ पिंग के नेतृत्व में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों से शुरू होता है । इस रणनीति के तहत चीन ने अपनी जरूरत के अनुसार अर्थव्यवस्था को खोला तथा पारंपरिक विकास की रणनीति अपनाई, अर्थात कृषि से उद्योग और उद्योग से सेवा क्षेत्र की ओर स्वयं को विस्तारित करके न सिर्फ लोगों को रोजगार देने में सफल रहा, बल्कि इस दौरान उसने मानव विकास संकेतकों में भी खुद को ऊपर उठाने में सफलता प्राप्त की । इन्हीं आर्थिक सुधारों के बल पर जीडीपी के आकार में 1978 से पहले भारत के पीछे खड़ा चीन आज विश्व की दूसरी सबसे बड़ी जीडीपी वाला देश बन चुका है ।


माओवादी रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा यह भी है कि स्वयं को मजबूत करने के साथ-साथ शत्रु को कमजोर करना है । इसलिए चीन  विवादित सीमा के कारण कभी डोकलाम में, तो कभी गलवान घाटी में भारत को उलझाए रखता है, और उसकी शक्ति का भी परीक्षण करता रहता है । वस्तुत: 1985 में राजीव गांधी के समय से ही शुरू हुए सीमा विवाद को सुलझाने के प्रयास के समय से ही चीन की दोहरी रणनीति रही है । वह सीमा-विवाद के कारण भारत को दबाव में रखते हुए एक तरफ भारत से आर्थिक लाभ लेकर विकास की दौड़ में भारत से आगे निकलता जा रहा है, तो दूसरी तरफ वह सीमा-विवाद में उलझकर भारत के विकास को दुष्प्रभावित करने के साथ ही सीमांत प्रदेशों पर कब्जे के मंसूबे भी पाले हुए है । साथ ही वह अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भी भारत के बढते कदम रोकने तथा राजनयिक प्रतिस्पर्धा में भी उसे कमजोर करने के कोई प्रयास नहीं छोड़ता है ।


1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद 'एक-ध्रुवीय विश्व' की संकल्पना के तहत अमेरिका वैश्वीकरण के द्वारा दुनिया पर अपना प्रभाव बढा रहा था, तो उसी समय चीन सोवियत संघ की जगह लेने की रणनीति के तहत बहुध्रुवीय विश्व के लिए प्रयासरत भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, रूस के अलावा मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों को साथ लेकर परस्पर सहयोग पर आधारित क्षेत्रीय संगठनों के माध्यम से इस प्रतिस्पर्धा में आगे निकल जाता है ।


चीन का द्वितीय उभार राष्ट्रपति शी जिनपिंग के कार्यकाल में शुरू होता है । 2013 में शी जिनपिंग द्वारा 'वन बेल्ट वन रोड' (बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव) योजना की शुरुआत की जाती है । इसके माध्यम से पुराने सिल्क रूट को पुनः विकसित करके एशिया, यूरोप और अफ्रीका के देशों को सड़क एवं समुद्री मार्गों से जोड़कर चीन में मंदी और बेरोजगारी जैसी स्थिति को कम करके अर्थव्यवस्था में तेजी लाने का प्रयास किया जाता है । मूलतः आधारभूत ढांचा एवं संपर्क-मार्ग विकास की परियोजना होते हुए भी इसके राजनीतिक निहितार्थ भी हैं । इस परियोजना में 6 गलियारों की बात की गई है, और 100 से अधिक देशों ने इसे स्वीकृति भी दे दी है । किंतु भारत के साथ ही पश्चिमी देश इसे संदेह की नजर से देख रहे हैं, क्योंकि चीन अपनी 'चेक-डिप्लोमेसी' के माध्यम से आधारभूत ढांचे के विकास के नाम पर उन देशों के क्षेत्रों पर कब्जा करता जा रहा है, जिसमें भारत का पाक-अधिकृत क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा भी शामिल है ।


किंतु दिसंबर 2019 में कोविड-19 महामारी का पता चलने के बाद से ही चीन की अर्थव्यवस्था पर घातक प्रभाव पड़ा है । जो देश चीन की इस परियोजना से जुड़े हुए थे, शुरुआत में उन्हें ही सर्वाधिक नुकसान हुआ है । श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे देश, जो इस परियोजना के भारी ब्याज दरों के कारण ऋण चुकाने में असमर्थ रहे हैं, उन देशों के बंदरगाहों पर चीनी सेना ने अपना अधिकार जमा लिया है । चीन के इस कदम को पूर्ण-युद्ध से पूर्व संपूर्ण सैन्य तैयारी के रूप में देखा जा रहा है । यह चीन की 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल' पॉलिसी का हिस्सा है, जिसके द्वारा वह एक तरफ भारत को घेरता जा रहा है, तो दूसरी तरफ इसे 'मलक्का-दुविधा' से बचने के प्रयास के रूप में भी देखा जा रहा है ।


चीनी साम्राज्यवाद का सबसे बड़ा खतरा यह है कि वह अपने आर्थिक हितों को प्राप्त करने के लिए युद्ध जैसे उपकरणों का सहारा ले सकता है । युद्ध के साधन के रूप में परमाणु बम के बाद सबसे खतरनाक हथियार जैविक हथियारों को माना जाता है । हाल के कई शोधों में पश्चिमी देशों ने इस बात को स्थापित करने का प्रयास किया है, कि कोविड-19 महामारी की उत्पत्ति एवं प्रसार में चीन का बहुत बड़ा योगदान रहा है । इसे वे चीन की वुहान प्रयोगशाला से निकला हुआ वायरस बता रहे हैं । यद्यपि चीन एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बात से इनकार किया है । किंतु महामारी के संदर्भ में इन दोनों की भूमिका संदिग्ध मानते हुए अमेरिका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को दिया जाने वाला अनुदान रोक दिया है, तथा पश्चिमी देशों के साथ मिल कर वह चीन पर जांच संबंधी दबाव बना रहा है ।


हाल ही में, जी-7 के 'कॉर्नवॉल शिखर सम्मेलन' में अमेरिका समेत पश्चिमी देशों ने कोरोना वायरस की उत्पत्ति संबंधी जांच को पुनः दुहराया है । चीन के उभार से चिंतित इन देशों ने अमेरिकी नेतृत्व में चीन की 'ओबोर परियोजना' के विरुद्ध 'बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड' (B3W) परियोजना का समर्थन किया है । 'नाटो शिखर सम्मेलन' में भी पश्चिमी देशों ने चीन के बर्ताव को एक 'व्यवस्थित चुनौती' मानते हुए चीन के उदय का जवाब देने का समर्थन किया है ।


वस्तुतः चीन और भारत को लेकर पश्चिमी देशों की दृष्टि एकदम उपयोगितावादी है । उनकी नजर यहां के कुशल श्रमिकों और बड़े बाजार पर है । इन आधारों पर वे इन दो देशों से संबंध रखना चाहते हैं । किंतु जब निवेश की बात आती है, तो फिर उन्हें साम्यवादी चीन लोकतांत्रिक भारत से कहीं बेहतर दिखाई देता है । साथ ही, अमेरिका और रूस चीन को संतुलित करने के लिए भारत का, और भारत को संतुलित करने के लिए पाकिस्तान का सहयोग लेने जैसी दोहरी रणनीति भी अपनाते रहते हैं, जिससे दक्षिण एशिया में तनाव एवं संघर्ष की स्थिति पैदा होती रहती है, जो भारत के स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया को बाधित करती है ।


21वीं सदी को 'एशिया की सदी' के रूप में देखा जा रहा है । ऐसे में वैश्वीकरण के माध्यम से भारत जहाँ बहुध्रुवीय विश्व के स्वप्न को साकार करना चाह रहा है, वहीं चीन इसे रोमन एवं अंग्रेजी साम्राज्यवाद एवं अमेरिकी नवसाम्राज्यवाद के बाद 'चीन की सदी' के रूप में बदलने को आतुर दिख रहा है । इसलिए भारत को राष्ट्रीय हितों के संबंध में सतर्क एवं जागरूक रहते हुए, यह भी ध्यान देने की जरूरत है, कि हमारे पास पड़ोसी चुनने का विकल्प नहीं है ।

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