![]() |
Israel Palestine Conflict - Part 2
25/05/2021 |
महान वैज्ञानिक न्यूटन का तीसरा सिद्धांत कहता है कि हर क्रिया के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया अवश्य होती है । इजराइल और फिलिस्तीन के संघर्ष को भी विचारक इसी सिद्धांत पर रख कर तौलते हैं । किंतु विज्ञान के सिद्धांत मानविकी पर उसने सटीक नहीं बैठते , इसलिए क्रिया एवं प्रतिक्रिया का अनुपात भी बदलता रहता है । राष्ट्रीय हित एवं मुस्लिम जगत के नेतृत्व के प्रश्न ने इस मुद्दे को और उलझा दिया है ।
यहूदियों (इजराइल) और फिलिस्तीन के मध्य संघर्ष की प्राथमिक वजह यरूशलम पर अधिकार है । इस संघर्ष की शुरुआत 72 ई पू में एक्जोडस से हुई , जब रोमन आक्रमण के बाद यहूदियों के पवित्र मंदिर को तोड़ दिया गया , जिसका अब एक हिस्सा बचा है , जिसे वेस्टर्न वॉल कहा जाता है । इस घटना के बाद इस क्षेत्र से यहूदियों का पलायन शुरू हुआ , और वे पूरी दुनिया में फैल गए ।
यहूदियों का , भारत छोड़कर सारी दुनिया , विशेषकर यूरोप में बहुत अपमान हुआ और यहां से एंटीसेमिटिज्म की शुरुआत होती है , जो यहूदियों के साथ भेदभाव पर आधारित था । उन्हें अपनी पहचान सार्वजनिक करनी पड़ती थी , अन्यथा उन्हें दंडित किया जाता था । 1890 के युद्ध में रूस के हाथों फ्रांस की हार का कारण भी यहूदियों को ही माना गया ।
यहूदियों को मातृभूमि का स्वप्न दिखाने वाले व्यक्ति का नाम है थियोडोर हर्जल , जिन्होंने खुद एंटीसेमिटिज्म का सामना किया था । उन्होंने 1897 में बेसल (स्विट्जरलैंड) में जिओनिस्ट कांग्रेस की स्थापना की । वस्तुतः या एक ही हिब्रू शब्द है , जिसका अर्थ है - स्वर्ग , और यह यहूदियों की स्वदेश वापसी से संबंधित था ।
बल्फॉर घोषणा -
ब्रिटेन के विदेश मंत्री आर्थर जेम्स बल्फॉर ने घोषणा की थी कि फिलिस्तीन में एक यहूदी राष्ट्रीय घर की स्थापना की जाएगी । द्वितीय विश्व युद्ध में पराजित तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य का विखंडन करके फिलिस्तीनी क्षेत्र में यहूदियों को बसाना शुरू किया गया । किंतु इस प्रक्रिया को गति दितीय विश्व युद्ध के बाद मिली , जब लोगों को पता चला कि हिटलर द्वारा 60 लाख यहूदियों का एंटीसेमिटिज्म के कारण कत्ल कर दिया गया । ऐसे में 14 मई 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के तहत प्रथम यहूदी राष्ट्र अस्तित्व में आया ।
यरूशलम पर अधिकार को लेकर अरबों एवं फिलिस्तीनीयों ने इजराइल से 1948 , 1956 , 1967 , 1973 और 1914 में 5 युद्ध किए , जिसमें हर बार इजराइल की विजय हुई । इन युद्धों के दौरान इजरायल ने न सिर्फ अपने आप को मजबूत किया बल्कि आसपास के क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया ताकि इनका बफर स्टेट के रूप में इस्तेमाल किया जा सके ।
अगर इजरायल की भौगोलिक स्थिति की बात करें , तो वह भूमध्य सागर के पूर्वी हिस्से में बसा हुआ एक देश है । इसके उत्तर में लेबनान , पूर्व में जॉर्डन और पश्चिम में मिस्र है । यह स्वेज नहर के अत्यंत निकट स्थित है । ऐसे में तेल एवं अन्य जरूरी सामानों की आवाजाही सुनिश्चित करने के लिए और भू-राजनीतिक एवं स्त्रातेजिक स्थिति के कारण इसराइल का पश्चिम एशिया में एक महत्वपूर्ण स्थान है , जिसके कारण अमेरिका और यूरोपीय देश उसका समर्थन करते हैं ।
इजरायल का अरब देशों द्वारा विरोध का प्रमुख कारण है , अरब क्षेत्र में उसकी भू-धार्मिक स्थिति ।
अरब जगत के देश विभाजित मानसिकता एवं क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभरने की कोशिश एवं मुस्लिम नेतृत्व की कमान संभालने की महत्वकांक्षा के कारण कभी इकट्ठे नहीं हो पाते हैं । इसी के कारण इजराइल उन्हें बार-बार पटखनी देता आया है और इन सब का नुकसान फिलिस्तीनियों को होता है , जो अरब राष्ट्रों के हित का साधन मात्र बन कर रह गए हैं ।
1973 में योम किप्पूर युद्ध के बाद मिस्र ने समझ लिया था कि इस समस्या का हल युद्ध से नहीं बल्कि वार्ता से ही निकल सकता है । इसलिए 1979 में उसने इजरायल से समझौता कर लिया और 1994 में जॉर्डन ने भी इजराइल से शांति समझौता कर लिया । हाल के वर्षों में तुर्की और सऊदी अरब ने भी इजराइल से अपने व्यापारिक संबंध मजबूत किए हैं ।
अब्राहम अकॉर्ड एक ऐसा समझौता था जो 13 अगस्त 2020 को इजराइल और संयुक्त अरब अमीरात और 11 सितंबर 2020 को इजराइल और बहरीन के बीच अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मध्यस्थता से हुआ । डोनाल्ड ट्रंप का कहना था कि इससे अरब क्षेत्र में शांति स्थापित होगी । इसके तहत न सिर्फ एक दूसरे के क्षेत्रों में दूतावास स्थापित हुए बल्कि व्यापारिक संबंध भी बने और आगे इन देशों ने कोविड-19 पर भी सहयोग का आश्वासन भी दिया । इस समझौते की प्रमुख बात है इजराइल ने वेस्ट बैंक की बस्तियों को खुद से जोड़ने की योजना को स्थगित कर दिया है तथा इजराइल एवं अल अक्सा मस्जिद क्षेत्र को पूरे दुनिया के मुसलमानों के लिए खोल दिया है ।
तुर्की और सऊदी अरब -
ऑटोमन साम्राज्य जैसी स्थिति को पुन: पा लेने की महत्वाकांक्षा से तुर्की हमेशा से इजराइल का विरोध करते आया है जबकि वह उसका एक प्रमुख व्यापारिक भागीदार है । सऊदी अरब की मंशा भी कुछ इसी प्रकार की है । साथ ही अगर वह ऐसा नहीं करेगा , तो पवित्र मक्का मस्जिद के कारण मुस्लिम जगत में जो उसे पहला दर्जा प्राप्त है , वह खो देगा और इसका फायदा शिया ईरान उठा सकता है ।
ईरान प्रारंभ से ही इजराइल का विरोध ही रहा है और वह हमास और हिजबुल्ला जैसे आतंकवादी संगठनों के माध्यम से इजराइल को कमजोर करने का प्रयास करता रहा है । इस प्रयास के द्वारा वह मुस्लिम जगत में अपना प्रभाव स्थापित करने में भी सफल रहा है ।
वर्तमान संघर्ष का कारण -
वर्तमान संघर्ष की नींव अमेरिकी राष्ट्रीय डोनाल्ड ट्रंप ने 2017 में ही रख दी थी , जब उन्होंने यरूशलम को इजराइल की राजधानी बनाने का वायदा किया था । इसका प्रमुख उद्देश्य था , अमेरिका में बसे यहूदियों का वोट लेना । किंतु भारत सहित 128 देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ में इस प्रस्ताव का विरोध किया था ।
हाल ही में इस संघर्ष की शुरुआत 6 मई 2021 को तब हुई , जब इजराइली सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश पारित किया कि पूर्वी यरूशलम से 6 फिलिस्तीनी परिवारों को हटाया जाए । बहुमत से दूर और भ्रष्टाचार का मुकदमा झेल रहे इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के लिए यह एक सुनहरा मौका था , जो यथास्थिति (डेमोग्राफी) में बदलाव करके यहूदी राष्ट्रवाद के जरिए सप्ता में पुनर्वापसी की संभावना देख रहे थे । यहीं से 10 मई को होने वाले पुलिस और फिलिस्तीनी लोगों के बीच टकराव की शुरुआत होती है , जब अल अक्सा मस्जिद के पास से अरबों को भगाया जाना शुरू किया जाता है । फिलिस्तीनियों का समर्थन हमास रॉकेटों के हमले से करता है , जिसका जवाब देने के लिए इजरायली सेना गाज़ा क्षेत्र में जबर्दस्त बमबारी करती है ।
विभाजित मानसिकता के कारण 57 इस्लामिक देशों के संगठन इस्लामिक सहयोग संगठन अपनी जेद्दाह बैठक में किसी परिणाम तक नहीं पहुंच पाती है । संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश तो हमास और फिलीस्तीन को ही चेतावनी देते हैं कि वह अपनी कार्रवाई रोके , वरना उसके द्वारा दिया जाने वाला आर्थिक सहायता रोक दी जाएगी ।
भारत : इजराइल और फिलिस्तीन -
भारत इस विवादित क्षेत्र में प्रारंभ से ही द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का पक्षधर रहा है । उसने 1950 में ही इजराइल को मान्यता दे दी थी । किंतु इजराइल से पूर्ण राजनयिक संबंध 1992 में ही स्थापित हो पाए , क्योंकि इजराइल पश्चिमोन्मुख था , जबकि भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का प्रमुख नेता था । इसके अलावा , तेल की आवश्यकता , कश्मीर मुद्दे पर अरब राष्ट्रों के समर्थन तथा भारत के मुसलमानों को विश्वास में लेने के लिए भी भारत द्वारा यह कदम उठाया गया था । 1975 में ही भारत ने पीएलओ को अपने यहां कार्यालय खोलने की अनुमति दी और 1996 में जब फिलिस्तीन यूएन का गैर सदस्य देश बना , तो भारत ने भी इसका समर्थन किया ।
नरेंद्र मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं , जिन्होंने 2017 में इजरायल की यात्रा की । 2018 में वह फिलिस्तीन की यात्रा पर भी जाने वाले प्रथम प्रधानमंत्री बने , जिन्हें वहां ग्रैंड कॉलर सम्मान दिया गया ।
वर्तमान विवाद में भी भारत संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने राजदूत टी एस तिरुमूर्ति के माध्यम से एक संतुलित रवैया अपनाया है , और पुनः द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की है तथा फिलिस्तीन की जायज मांगों का ही समर्थन किया है । साथ ही भारत ने एकतरफा कार्यवाही के माध्यम से यथास्थिति को बदलने के प्रयास को भी उचित नहीं ठहराया है , अन्यथा भारत पाक अधिकृत कश्मीर और अक्साई चिन पर अपना दावा नैतिक रूप से खो देगा ।
उपसंहार -
इजराइल और फिलिस्तीन संघर्ष बहुत जल्दी समाप्त न होने वाला विवाद है । किंतु इसे लेकर अरब राष्ट्रों में दो तरह की धारणाएं हैं । छवि बनाने वाले राष्ट्र मुस्लिम हित या नेतृत्व की बात करके फिलिस्तीनियों के पक्ष में खड़े होते हैं और गैर राज्य कर्ताओं को आगे करके अंतिम रूप से फिलिस्तीनियों का ही नुकसान करते हैं । दूसरे वे राज्य हैं , जो इसका तत्काल समाधान ना देखते हुए इजराइल से संबंध बनाकर अपने आर्थिक विकास पर बल दे रहे हैं । यद्यपि मिस्र की पहल पर इस विवाद का तात्कालिक रूप से समाधान हो गया है । किंतु अरब जगत का विभाजित रवैया और पश्चिमी देशों का इजराइल को अंध समर्थन इस विवाद को कभी भी पुनः उभार सकता है ।
Comments
Post a Comment